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हक़ में दुनिया मेरे गुलज़ार नहीं थी, कि जो है
40
कुछ तीस बरस पास समुन्दर के रहा हूँ जो आँखों ने बड़ी देर से दरिया तो चलो ठीक है सहरा नहीं देखालेगा
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सुकूँ पज़ीर नहीं हैं गड़े हुए मुर्दे
उखाड़िए न इन्हें, ये वबाल कर देंगे
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उलझा ये जनेऊ तो सुलझता नहीं तुमसेउस से सुलझाओगे सुलझाएगा कैसे भला महबूब के गेसू
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लेकर वो कई साथ में आती है हमेशा
कहते हैं मुसीबत कभी तनहा नहीं आती
44हम चैन से बैठेंगे किसी हाल न जब तक भारत का ये परचम वहाँ फहरा नहीं लेंगे
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