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ख़बरों का कागज़
सुबह की चाय के साथ खुलता है
लेकिन उसमें सच
कहीं एक कोने में
छोटे-से अक्षर में
ख़ुद को छिपाए बैठा है।
पत्रकारिता,
जैसे कोई पुराना घर
जिसके दरवाज़े अब सत्ता की हवा से हिलते हैं।
स्याही थी कभी लोक की आवाज़
अब वह धन की उँगली पर नाचती है।
कोई ख़बर
पैसे की थैली में लिपटी
अख़बार के पन्नों पर चढ़ती है।
‘एडवरटोरियल’ लिखा होता है,
लेकिन आँखें उसे पढ़ने से पहले थक जाती हैं।
सच - जैसे कोई बच्चा,
जो खेलते-खेलते बाज़ार में खो गया।
टीआरपी की दौड़
जैसे साइकिल का पहिया
घूमता है, लेकिन कहीं नहीं जाता।
सनसनी - जैसे रास्ते की धूल,
हवा में उड़ती है, आँखों में चुभती है।
संपादक,
कभी जो कलम से
लोकतंत्र का चेहरा बनाता था
अब मालिकों की मेज़ पर
कागज़ का एक टुकड़ा है।
रिश्वत
जैसे कोई चींटी
धीरे-धीरे ख़बरों की रोटी खा जाती है।
प्रेस काउंसिल
जैसे कोई पुराना पेड़,
जो अब सिर्फ़ छाया देता है,
फल नहीं।
वरिष्ठ पत्रकार चुप हैं
जैसे कोई पुरानी किताब
जिसके पन्ने हवा में फड़फड़ाते हैं
पर कोई नहीं पढ़ता।
लोकतंत्र - जैसे कोई नदी
जो अब
सत्ता की पाइप में बहती है।
ख़बरें - जैसे कबूतर,
जो उड़ते तो हैं;
पर पिंजरे की ओर लौट आते हैं।
फिर भी
कहीं कोई कलम - जैसे खेत में उगा एक पौधा
हवा के ख़िलाफ़
अपना सिर उठाए रखता है।
सच
शायद अभी
उसी पौधे की पत्ती पर
टपकता हुई ओस है।
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