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चुप हैं आज प्रभुना रथ की गूंज, ना शंख की गाथा,ना भोग, ना आरती,केवल मौन का एक विलग आलाप।मंदिर के भीतर की उस एकांतिक शांति मेंबजती नहीं मंज़ीरे की ताल,केवल एक धीमा साँसों-सा स्पंदन,जैसे साक्षात् विष्णुस्वयं को फिर से जाग्रत करने की साधना कर रहे हों।कई कल्पों से ओढ़े हुए धागों मेंकुछ थकन उलझ गई है।स्नान के एक सौ-आठ कलशों नेदेह को नहीं, शायद आत्मा को भिगो दिया है।क्या ईश्वर को भीअलभ्य प्रेम की थकान हो जाती है?क्या इतनी पुकारों के बीचकभी वह एकात्मता को तरस जाते हैं?अनसार गृहएक कक्ष नहीं, एक अंतराल है।जहाँ ईश्वर भीदेहधारी हो उठते हैं क्षण भर को।जहाँ वह विराम लेते हैंअपने ही विराट होने से।वहाँ नीलकंठ वैद्य की भाँतिसेवक औषधि नहीं, श्रद्धा चढ़ाते हैं।तुलसी, बेलपत्र, पंचगव्यये शरीर नहीं, आत्मा का उपचार करते हैं।और हम?हम बाहर प्रतीक्षा में ठिठके हैं,दरवाज़े के उस पारजहाँ न दृष्टि पहुँचती है, न चाह।विरह का यह आधा माहवास्तव में एक अंतर्मुखी रात्रि हैजहाँ प्रत्येक भक्तअपने भीतर के शून्य से साक्षात्कार करता है।क्योंकि जब ईश्वर भी मौन हो जाते हैं,तो हमें अपने भीतरउनकी ध्वनि ढूँढनी पड़ती है।और वहीं, उसी मौन में,रचता है एक नया संवादजो रथ यात्रा के नगाड़ों से,संवेदना के स्पंदन से जन्म लेता है।अनवसरा केवल ईश्वर का विश्राम नहींयह हमारी भक्ति की अग्निपरीक्षा है।कि जब न दर्शन हों, न स्पर्श, न आशीर्वादतब भी क्या हम उतने ही जुड़े रहते हैं?-0-
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