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1
चतुर्दिक भूमि कण्टका-कीर्ण अंधेरा छाया था सब ओर,
मार्ग के चिन्ह हुए थे लुप्त, घटा घुमड़ी थी नभ में घोर
बुद्धि की सूझ हुई थी मंद, प्रेरणा की गति भी निस्पंद,
खेल सब आशा के थे बंद, कष्ट का नहीं कहीं था छोर।
2
भटक कर चला गया था दूर, मानसिक शक्ति हुई ही चूर,
बजे टूटी तन्ने के तार- नहीं क्या होगा अब उद्धार।
जगत में व्याप हुई वह हूक, न निष्फल गई हृदय की कूक,
कहीं से मिला एक संकेत- बना वह काँटों में आधार।
3
तमिस्रा हुई गगन में लीन, दिशा ने पाई दृष्टि नवीन,
सजाया नेत्रों ने मृदु मार्ग, पलक प्रिय बने पाँवड़े पीन,
उदित हुई जब पूर्व के द्वार, पहिन कर ऊषा मुक्त हार,
समीरि सौरभ ने ली तान, बजी पुलकित मुकुलों की बीन।
प्रफुल्लित मृदु-मुकुलों को देख, मिलाया विधि ने सीकर एक,
सफल उनके जीवन हो गए हुई सब नीर सताएँ क्षीण।
4