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22:13, 30 दिसम्बर 2008 के समय का अवतरण
बाँहों के ऊपर चांद का गुदना
नदी से चिपकी एक खुली खिड़की
तलुओं को सहलाती हुई कोई
मन-लायक ऋतु
काँच के आर-पार जाने वाले
सपने की सुविधा
यह सब तो है अपने पास
कवितावाले नाव की तक़दीर में
ज़िन्दगी के अर्थ खोलने के लिए
जीवन का जायजपन सिद्ध करने की ख़ातिर
उसे विश्व के माथे पर टाँक देने की ख़ातिर
मग्नोलिया के अंदाज़ में
उसे सूंघने की ख़ातिर और
इन्द्रियों में आबाद कर लेने की ख़ातिर
अपनी मंज़िल पर शान से
बिना घुटने टेके पहुँचने की ख़ातिर
है तो वह नाव
खिड़की खुली,
चांद का गुदना
और अपना होना।
इससे ज़्यादा और क्या चाहिए...