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तराशी हुई कंकरीट इमारतों | तराशी हुई कंकरीट इमारतों | ||
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और नगरीय शोर के बीच | और नगरीय शोर के बीच | ||
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तुम हो मेरे लिये एकमात्र सघन प्रकृति | तुम हो मेरे लिये एकमात्र सघन प्रकृति | ||
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तुम्हारी आँखों में देखी हैं मैंने | तुम्हारी आँखों में देखी हैं मैंने | ||
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झूलती हुई वकुल टहनियाँ | झूलती हुई वकुल टहनियाँ | ||
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माँस-मज्जा के वोटरों में | माँस-मज्जा के वोटरों में | ||
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पहाड़, घाटियाँ और ढलानों पर | पहाड़, घाटियाँ और ढलानों पर | ||
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हवाओं में झूमते जंगल | हवाओं में झूमते जंगल | ||
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और तब तुम हो जाती हो | और तब तुम हो जाती हो | ||
− | + | ब्रह्माण्ड के अन्तिम तत्त्व की परमा | |
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जिससे तुम बनी हो | जिससे तुम बनी हो | ||
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तुम्हारी घाटियों में बहती हैं वेगवती | तुम्हारी घाटियों में बहती हैं वेगवती | ||
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अमर द्रव की नदियाँ | अमर द्रव की नदियाँ | ||
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गिरते हैं बेशुमार आबशार भी | गिरते हैं बेशुमार आबशार भी | ||
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उभय भावनायें हमारी करते स्पन्दित | उभय भावनायें हमारी करते स्पन्दित | ||
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सृष्टि की तुम हो आधारशिला | सृष्टि की तुम हो आधारशिला | ||
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जहाँ से अलग हुए थे हम | जहाँ से अलग हुए थे हम | ||
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आद्या स्त्री | आद्या स्त्री | ||
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आद्य पुरुष | आद्य पुरुष | ||
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अरबों साल पहले | अरबों साल पहले | ||
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जब विश्व था अपौरुषेय | जब विश्व था अपौरुषेय | ||
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अव्याख्येय | अव्याख्येय | ||
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और अनजाना | और अनजाना | ||
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तुम लहराती हो तो | तुम लहराती हो तो | ||
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मेरे आकाश में अब बजता है | मेरे आकाश में अब बजता है | ||
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झीना-झीना नाद | झीना-झीना नाद | ||
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सुन नहीं पातीं जिसे | सुन नहीं पातीं जिसे | ||
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मेरी इन्द्रियस्थ श्रुतियाँ | मेरी इन्द्रियस्थ श्रुतियाँ | ||
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पर तुम हो | पर तुम हो | ||
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अपनी नक्षत्रीय काया से अलग | अपनी नक्षत्रीय काया से अलग | ||
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एक भूमिगत पहचान | एक भूमिगत पहचान | ||
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और मैं तुम्हारी चित्रमय | और मैं तुम्हारी चित्रमय | ||
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बहुरंगी माया में | बहुरंगी माया में | ||
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कंकरीट का | कंकरीट का | ||
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एक तामसिक विडार। | एक तामसिक विडार। | ||
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18:50, 12 जनवरी 2009 के समय का अवतरण
तराशी हुई कंकरीट इमारतों
और नगरीय शोर के बीच
तुम हो मेरे लिये एकमात्र सघन प्रकृति
तुम्हारी आँखों में देखी हैं मैंने
झूलती हुई वकुल टहनियाँ
माँस-मज्जा के वोटरों में
पहाड़, घाटियाँ और ढलानों पर
हवाओं में झूमते जंगल
और तब तुम हो जाती हो
ब्रह्माण्ड के अन्तिम तत्त्व की परमा
जिससे तुम बनी हो
तुम्हारी घाटियों में बहती हैं वेगवती
अमर द्रव की नदियाँ
गिरते हैं बेशुमार आबशार भी
उभय भावनायें हमारी करते स्पन्दित
सृष्टि की तुम हो आधारशिला
जहाँ से अलग हुए थे हम
आद्या स्त्री
आद्य पुरुष
अरबों साल पहले
जब विश्व था अपौरुषेय
अव्याख्येय
और अनजाना
तुम लहराती हो तो
मेरे आकाश में अब बजता है
झीना-झीना नाद
सुन नहीं पातीं जिसे
मेरी इन्द्रियस्थ श्रुतियाँ
पर तुम हो
अपनी नक्षत्रीय काया से अलग
एक भूमिगत पहचान
और मैं तुम्हारी चित्रमय
बहुरंगी माया में
कंकरीट का
एक तामसिक विडार।