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दागो, भागो / शैल चतुर्वेदी

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निशानेबाज़ी में इनाम पाया था
पेपरों मे नाम आया था।"
 
वे बोलीं-"बस-बस रहने दो
देख ली तुम्हारी निशानेबाज़ी
सुई मे धागा ड़ालने को कहा
तो ड़ालना दूर रहा
सुई गुमा दी
उस दिन लकड़ी फड़ने को कहा
तो कुल्हाड़ी
पैर पर दे मारी थी
और बैल्ट समझकर
खूंटी से छड़ी उतार दी थी
सी.सी. बीसी(एन.सी.सी नहीं) को
गोली मारो
नहाओ, धू
और दफ्तर पधारो।"
 
इतना तगड़ा तर्क सुनकर
भला क्या बोलते
न जाने और क्या सुनना पड़ता
जो मुंह खोलते
हमने सोचा-
(उलझना ठीक नहीं
पर स्वयं को
कमज़ोर समझना भी थीक नहीं)
भोजन किया
और चल दिये दफ्तर को
तभी रेस्ट हाऊस के सामने
फौजी लिबास में
खड़े देखा पड़ोसी अख़्तर को
हमारा पौरूष जाग उठा
देश के प्रति अनुराग जाग उठा
फौजी कैंप में जा पहुँचे
मगर माप-तौल करने वाले
अफसर को नहीं जंचे
बोला-"कमर छयालीस है
और सीना बयालीस
वज़न ज़रूरत से ज्यादा है
नौजवन नहीं दादा है।"
 
हमने आथ जोड़कर कहा-
"सिपाही जी,
यह फैजी भरती है
या मिस इंडिया का चुनाव है
ले लीजिए न
मुझे बड़ा चाव है।"
वह बोला-"बहस मत करो जी
लड़ना
तुम्हारे बस की बात नहीं
हमें फौज ले जाना है
बारात नहीं।"
 
उसने अफसर को दी रिपोर्ट
अफसर बहादुर था
हमको ही किया सपोर्ट
बोला-"साथ दिन परेड करेगा
तो शेप में आ जाएगा
फिर कुछ तो काम आएगा
हमें एक ओर
शत्रु को पीछे हटाना है
और दूसरी ओर
देश की फलतू आबादी घटाना है
चल निकला तो वार करेगा
वर्ना दुश्मन की
दस-पांच गोलिया ही बेकार करेगा।"
 
दूसरे ही क्षण
हम फौजी शान में थे
तीसरे दिन
लड़ाई के मैदान में थे
गोलियाँ सनसना रही थीं
दनदना रही थीं
हवाई जहाज उतर रहे थे
चढ रहे थे
हम आगे बढ रहे थे
हुक्म मिला-"दागो!"
हम समझे-"भागो!"
तभी धमाका हुआ
शायद बम फूटा
हमारी नीन्द खुल गई
और स्वप्न टूटा।