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<br>सुकृति संभु तन बिमल बिभूती। मंजुल मंगल मोद प्रसूती॥
<br>जन मन मंजु मुकुर मल हरनी। किएँ तिलक गुन गन बस करनी॥
<br>श्रीगुर श्रीगुरु पद नख मनि गन जोती। सुमिरत दिब्य दृष्टि हियँ होती॥
<br>दलन मोह तम सो सप्रकासू। बड़े भाग उर आवइ जासू॥
<br>उघरहिं बिमल बिलोचन ही हिय के। मिटहिं दोष दुख भव रजनी के॥
<br>सूझहिं राम चरित मनि मानिक। गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक॥
<br>दो०-जथा सुअंजन अंजि दृग साधक सिद्ध सुजान।
<br>चौ०-गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन। नयन अमिय दृग दोष बिभंजन॥
<br>तेहिं करि बिमल बिबेक बिलोचन। बरनउँ राम चरित भव मोचन॥
<br>बंदउँ प्रथम महीसुर चरना। मोह जनित संसय सं सय सब हरना॥
<br>सुजन समाज सकल गुन खानी। करउँ प्रनाम सप्रेम सुबानी॥
<br>साधु चरित सुभ चरित कपासू। निरस बिसद गुनमय फल जासू॥
<br>जो सहि दुख परछिद्र दुरावा। बंदनीय जेहिं जग जस पावा॥
<br>मुद मंगलमय संत समाजू। जो जग जंगम संगम तीरथराजू॥
<br>राम भक्ति जहँ सुरसरि धारा। सरसइ ब्रह्म बिचार प्रचारा॥
<br>बिधि निषेधमय कलि मल हरनी। करम कथा रबिनंदनि बरनी॥
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