"वह सलोना जिस्म / शमशेर बहादुर सिंह" के अवतरणों में अंतर
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शमशेर बहादुर सिंह |संग्रह=कुछ कविताएँ / शमशेर बह...) |
छो |
||
पंक्ति 9: | पंक्ति 9: | ||
साँवली पलकें नशीली नींद में जैसे झुकें | साँवली पलकें नशीली नींद में जैसे झुकें | ||
चाँदनी से भरी भारी बदलियाँ हैं, | चाँदनी से भरी भारी बदलियाँ हैं, | ||
− | ख़ाब में गीत पेंग लेते | + | ख़ाब में गीत पेंग लेते हैं |
प्रेम की गुइयाँ झुलाती हैं उन्हें : | प्रेम की गुइयाँ झुलाती हैं उन्हें : | ||
− | : | + | :– उस तरह का गीत, वैसी नींद, वैसी शाम-सा है |
:वह सलोना जिस्म। | :वह सलोना जिस्म। | ||
उसकी अधखुली अँगड़ाइयाँ हैं | उसकी अधखुली अँगड़ाइयाँ हैं | ||
कमल के लिपटे हुए दल | कमल के लिपटे हुए दल | ||
− | + | कसें भीनी गंध में बेहोश भौंरे को। | |
वह सुबह की चोट है हर पंखुड़ी पर। | वह सुबह की चोट है हर पंखुड़ी पर। | ||
पंक्ति 24: | पंक्ति 24: | ||
नर्म कलियों के | नर्म कलियों के | ||
− | पर | + | पर झटकते हैं हवा की ठंड को। |
तितलियाँ गोया चमन की फ़िज़ा में नश्तर लगाती हैं। | तितलियाँ गोया चमन की फ़िज़ा में नश्तर लगाती हैं। | ||
− | : | + | :– एक पल है यह समाँ |
:जागे हुए उस जिस्म का! | :जागे हुए उस जिस्म का! | ||
जहाँ शामें डूब कर फिर सुबह बनती हैं | जहाँ शामें डूब कर फिर सुबह बनती हैं | ||
− | एक- | + | एक-एक – |
और दरिया राग बनते हैं – कमल | और दरिया राग बनते हैं – कमल | ||
फ़ानूस – रातें मोतियों की डाल – | फ़ानूस – रातें मोतियों की डाल – |
21:33, 20 जनवरी 2009 के समय का अवतरण
शाम का बहता हुआ दरिया कहाँ ठहरा!
साँवली पलकें नशीली नींद में जैसे झुकें
चाँदनी से भरी भारी बदलियाँ हैं,
ख़ाब में गीत पेंग लेते हैं
प्रेम की गुइयाँ झुलाती हैं उन्हें :
– उस तरह का गीत, वैसी नींद, वैसी शाम-सा है
वह सलोना जिस्म।
उसकी अधखुली अँगड़ाइयाँ हैं
कमल के लिपटे हुए दल
कसें भीनी गंध में बेहोश भौंरे को।
वह सुबह की चोट है हर पंखुड़ी पर।
रात की तारों भरी शबनम
कहाँ डूबी है!
नर्म कलियों के
पर झटकते हैं हवा की ठंड को।
तितलियाँ गोया चमन की फ़िज़ा में नश्तर लगाती हैं।
– एक पल है यह समाँ
जागे हुए उस जिस्म का!
जहाँ शामें डूब कर फिर सुबह बनती हैं
एक-एक –
और दरिया राग बनते हैं – कमल
फ़ानूस – रातें मोतियों की डाल –
दिन में
साड़ियों के से नमूने चमन में उड़ते छबीले; वहाँ
गुनगुनाता भी सजीला जिस्म वह –
जागता भी
मौन सोता भी, न जाने
एक दुनिया की
उमीद-सा,
किस तरह!
(1949)