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23:52, 22 जनवरी 2009 का अवतरण
बच्चे ! तुम्हें इस दुनिया के हवाले करते हुए रोना आ रहा है
शर्म से हम गड़े जा रहे हैं
हमने छोड़ा नहीं दुनिया को तुम्हारे रहने लायक
सभ्यता ने इसे कुरेद खाया है
जीत की आदिम हबस ने इसे तहस नहस का दिया है
मासूमियत प्यार और करुणा के परिंदों को
अजायब घरों से भी देश निकाला दे दिया गया है
शर्म हमारे लिए लोहे का कवच है
इसके भीतर छिपकर हम अतीत को गरियाते हैं
वर्तमान के कंधे पर सर रखकर रोते हैं
पता नहीं तुम्हारे लिए या अपने लिए
यही है हमारी खुराक
तुम अगर जीवित रहे कल
क्या खाकर कोसोगे हमें
बच्चे ! इस तरह तुम्हें निहत्था और असहाय करने की
सजा कौन देगा हमें।
(1993)