भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"आँगन-आँगन / केशव" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
प्रकाश बादल (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=केशव |संग्रह=|संग्रह=धरती होने का सुख / केशव }} <poem> ...) |
प्रकाश बादल (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 28: | पंक्ति 28: | ||
बारिश | बारिश | ||
और मौसमों की आँख-मिचौनी | और मौसमों की आँख-मिचौनी | ||
− | जिनके लिए भटकती रही आँगन-आँगन। | + | जिनके लिए भटकती रही |
+ | आँगन-आँगन। | ||
</poem> | </poem> |
00:52, 7 फ़रवरी 2009 के समय का अवतरण
सब कुछ ही नहीं चला आता
रंगों के पुकारने से
कुछ है जो रंगों की
पुकार को अनसुना कर
छूट जाता है दहलीज के उस ओर
दरअसल उसका
न कोई रंग होता है
न ही देह
फिर
रंगों से मुक्त होना होता है ज़रूरी
और विदेह होना भी
बहुत दिन बाद
शायद एक युग के बाद
लौटी हूँ फिर अपने आँगन में
पेड़ पर बैठी चिड़ियों को
देख रही हूँ एकटक
जैसे पहले नहीं देखा कभी
इस आँगन में भी हैं सूर्य-चाँद
बारिश
और मौसमों की आँख-मिचौनी
जिनके लिए भटकती रही
आँगन-आँगन।