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क्षयरोग के रहस्य की तरह खोलती हुई
कुछ इस प्रकार बोलीः
 
मेरे ही पेट में लात मारने को उगे ये पेड़
मेरी ही छाती के आँगन में
ये वानरों क्झुआ को झुला रहे हैं पालना
तालियाँ बजा-बजाकर
बालियाँ पहना-पहनाकर
ये मेरे आत्मज हैं
केवल नुझ मुझ से जन्म पाने तक
मुझ में कील की तरह गड़कर
शूल की तरह खुभने को
उअद्यपि यद्यपि मुझ ऐनसे इनसे कुछ नहीं लेना हिहै
तो भी दर्द तो इस बात का है कि
मेरी ही फुलबाड़ी में पलकर
ये इद कद्र जंगली हो गये हैं आज
कि कौवों,गिद्धों और बंदरों के अतिरिक्त
केवल सिंहों मात्र से ही रह गया है परिचय इन्हें
परिचय की इस परम्परा में
आज चन्दन की घास चर रहे हैं
आज सम्मानित होने के
कई तरीके हैं हमारे पास
दब-दब कर फुसफुसाहट में फुफकारते हैं
सभ्य होने की रिहर्सल में
 
हम वैसे तो मौनी हैं
गुपचुप के बाबा हैं
और दो विश्व भर बदमाशियाँ जब तलक हम
एक साँस में पी नहीं लेते
तब तलक जबते जपते रहते हैं
ओम नमः शिवाय
ओम नमः शिवाय
ताकि बाहर की साँस निर्विध्न आती रहे
फिर अगर हम खोलेंगे नहीं मुँह
तो दिहा दिखा कैसे पाएंगेअपने अन्त:करण की सर्वभक्सःई सर्वभक्षी भूख
जिसकी आँच और आयतन
कुम्भकर्णी माप का है
वसे वैसे हम कई कुछ हैं(केवल मनुसःय मनुष्य को छोड़कर )
और हम क्या कुछ हैं यह तो मैं नहीं बताऊंगा
क्योंकि हम खुद को बख़ूबी समझते हैं सब
खोखली और आँखहीन
पर जिन्हें मौकेबाज़
अपनी ज़रूरत के बक्तवक्त
रगड़ कर जगा लेते हैं
बल्ब ठोक-ठाककर चालाकी से
तुम हमारे बकने पर बोले हो
 
तुमने बिना दाँतुन किए हमारा नाम ले दिया
तुम्हें नहीं मिलेगा
मित्र! इस तरह के हमारे पास
कई शक्तिपुरुषों के
गणों के दूषित हाथों
आज क्या बात है कि हम
अपनी ही धर्मपत्नी पर करने लगे हैं शक!
राम य काम का सन्मंत्र दे नहीं सकती।
फिर क्यों हमें सब दीखता है जड़
मरणमय, क्षुद्र,विषमय, रिक्त
क्यों कहीं भी घुल नहीं पाती हमारी धूसरित आँखें
अरे, कहीं तो शिव पड़ा होगा
विरूप गणों की कुटिया
कहीं तो हरी होगी प्रीति, त्याग की दूब
मित्र ! सोच कर देखो आखिर क्यों नहीं होते या हो सकते हैं हम
यकसां, ज्योति-वितरक सूर्य
या रसवती प्रेम-आद्रा
यह क्या बात है कि हम कभी मार्गी नहीं होते
या सदा शनि की तरह गुरू के घर में अड़कर
सज्जनों से द्वेष ही करते हैं
आज हमें कोई भाई कहने को नहीं तैयार
कोई हमारा मित्र नहीं निःशंक
हर रात सोते वक्त डसता है कई सौ बार
पता नहीं मुझे क्यों लगता है कि हम
न आचार्य हैं. न हमदर्द
हम सिर्फ सिरदर्द हैं, सिरदर्द
हम दवाई के माम नाम पर विक कर
रोग बन लगते हैं औरों को
या फिर अपने ही झुण्ड के बैल हैं
जिन्हें माँ और बहन में फर्क नहीं ज्ञात
हम पशुपति के केवल कामजीवी प्राण हैं
 
देखो !
इसमें बुरा मानने की कोई बात नहीं
मुझे तुम्हारे सुकर्मों ? (पर पूरा भरोसा है)
पर सुनो ! हम भी पूरे पंडित हैं
जन्म से लेकर मरसिया पढ़ने तक के
यह योग गोचर में स्पष्ट है
मुझे यह समझ नहीं आता कि हम
वहीं क्यों चूक जाते हैं
जहाँ सत्य के लिए छोड़नी होती है कुर्सी
जहाँ बासनाहीन बाँटना होता है प्यार
 
क्यों चूक जाते हैं हम वहीं
जहां उगानी होती है सहानुभूति की फसल
हम क्यों चूक जांते हैं वहीं
पता बहीं नहीं हमारे पचास वर्ष पुराने मुख में भी
भेड़ियों के हिस्र जबड़े कैसे उग आते हैं
और हम एकदम जंगल हो उठते हैं सैंकड़ों पशुओं भरे
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