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"हिन्दी मेरी भाषा / अविनाश" के अवतरणों में अंतर

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<br />बहनें आना छोड़ देती हैं
 
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<br />पड़ोसी देखकर बचने की कोशिश करते हैं
 
<br />पड़ोसी देखकर बचने की कोशिश करते हैं
<br />मैं अपनी हिंदी में खोजना चाहता हूं गाँव
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<br /><br />मैं अपनी हिंदी में खोजना चाहता हूं गाँव
 
<br />एक शहर जहाँ दर्जनों तहजीबें हैं
 
<br />एक शहर जहाँ दर्जनों तहजीबें हैं
 
<br />वे सारे मुल्क़ जहाँ हमारे अपने बसे हुए हैं
 
<br />वे सारे मुल्क़ जहाँ हमारे अपने बसे हुए हैं

09:22, 12 फ़रवरी 2009 का अवतरण

हमारे दोस्त कुछ ऐसे हैं
जो दरिया कहने पर समझते हैं कि हम किसी कहानी की बात कर रहे हैं
उन्हें यक़ीन नहीं होता कि समंदर को
समंदर के अलावा भी कुछ कहा जा सकता है

सब्‍जी को शोरबा कहने पर समझते हैं
ये मैं क्या कह रहा हूँ
ऐसा तो मुसलमान कहते हैं

यहाँ तक कि गोश्‍त कहने पर उन्हें आती है उबकाई
जबकि हजारों-हजार बकरों-भैंसों को
कटते हुए देखकर भी
वे गश नहीं खाते
शायद इंसानों के मरने का समाचार भी उन्हें वक्त पर खाने से मना नहीं करता

हमारे गाँव में भी अब बोली जाने लगी है हिंदी
पर उस हिंदी में कुछ दिल्ली है, कुछ कलकत्ता
लखनऊ अभी दूर है
शहरों में होती हैं भाषाएँ तो भाषा में भी होते हैं शहर

दोस्त कहते हैं
तुम्हारी हिंदी में सरहद की लकीरें मिट रही हैं
ये ठीक नहीं है
पिता खाने की थाली फेंक देते हैं
बहनें आना छोड़ देती हैं
पड़ोसी देखकर बचने की कोशिश करते हैं

मैं अपनी हिंदी में खोजना चाहता हूं गाँव
एक शहर जहाँ दर्जनों तहजीबें हैं
वे सारे मुल्क़ जहाँ हमारे अपने बसे हुए हैं

दोस्तों की किनाराक़शी मंजूर है
मंजूर है हमारे अपने छोड़ जाएँ हमें
मुझे तो अब गुजराती भी हिंदी-सी लगने लगी है

‘वैष्‍णव जन तो तेणे कहिए जे
पीड़ परायी जाणी रे’

हम जितना मुलायम रखेंगे अपनी जबान
हमारे पास उतने मुल्क़ बिना किसी सरहद के होंगे

कितना मर्मांतक है दुनिया भर के युद्धों का इतिहास!