भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"रसवन्ती (कविता) / रामधारी सिंह "दिनकर"" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
S.K.Jhingan (चर्चा | योगदान) |
S.K.Jhingan (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 24: | पंक्ति 24: | ||
विकल मानवता का कल्याण, <br> | विकल मानवता का कल्याण, <br> | ||
बैठ खण्डहर मे करता रहा <br> | बैठ खण्डहर मे करता रहा <br> | ||
− | कभी निशि-भर अतीत का ध्यान. | + | कभी निशि-भर अतीत का ध्यान.<br><br> |
+ | |||
+ | श्रवण कर चलदल-सा उर फटा<br> | ||
+ | दलित देशों का हाहाकार,<br> | ||
+ | देखकर सिरपर मारा हाथ <br> | ||
+ | सभ्यता का जलता श्रृंगार.<br><br> |
18:07, 30 मार्च 2009 का अवतरण
अरी ओ रसवन्ती सुकुमार !
लिये कीड़ा-वंशी दिन-रात
पलातक शिशु-सा मैं अनजान,
कर्म के कोलाहल से दूर
फिरा गाता फूलों के गान।
कोकिलों ने सिखलाया कभी
माधवी-कु़ञ्नों का मधु राग,
कण्ठ में आ बैठी अज्ञात
कभी बाड़व की दाहक आग।
पत्तियों फूलों की सुकुमार
गयीं हीरे-से दिल को चीर,
कभी कलिकाओं के मुख देख
अचानक ढुलक पड़ा दृग-नीर।
तॄणों में कभी खोजता फिरा
विकल मानवता का कल्याण,
बैठ खण्डहर मे करता रहा
कभी निशि-भर अतीत का ध्यान.
श्रवण कर चलदल-सा उर फटा
दलित देशों का हाहाकार,
देखकर सिरपर मारा हाथ
सभ्यता का जलता श्रृंगार.