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कवि: [[माखनलाल चतुर्वेदी]]{{KKGlobal}}[[Category:कविताएँ]]{{KKRachna[[Category:|रचनाकार=माखनलाल चतुर्वेदी]] |संग्रह= ~*~*~*~*~*~*~*~ }}<poem>
चलो छिया-छी हो अन्तर में!
 
तुम चन्दा
 
मैं रात सुहागन
 
चमक-चमक उट्ठें आँगन में
 
चलो छिया-छी हो अन्तर में!
 
 
बिखर-बिखर उट्ठो, मेरे धन,
 
भर काले अन्तस पर कन-कन,
 
श्याम-गौर का अर्थ समझ लें
 
जगत पुतलियाँ शून्य प्रहर में
 
चलो छिया-छी हो अन्तर में!
 
 
किरनों के भुज, ओ अनगिन कर
 
मेलो, मेरे काले जी पर
 
उमग-उमग उट्ठे रहस्य,
 
गोरी बाँहों का श्याम सुन्दर में
 
चलो छिया-छी हो अन्तर में!
 
मत देखो, चमकीली किरनो
 
जग को, ओ चाँदी के साजन!
 
कहीं चाँदनी मत मिल जावे
जग-यौवन की लहर-लहर में
 
चलो छिया-छी हो अन्तर में!
 
 
चाहों-सी, आहों-सी, मनु-
 
हारों-सी, मैं हूँ श्यामल-श्यामल
 
बिना हाथ आये छुप जाते
हो, क्यों! प्रिय किसके मंदिर में
 
चलो छिया-छी हो अन्तर में!
 
 
कोटि कोटि दृग! मैं जगमग जो-
 
हूँ काले स्वर, काले क्षण गिन,
 
ओ उज्ज्वल श्रम कुछ छू दो
 
पटरानी को तुम अमर उभर में
 
चलो छिया-छी हो अन्तर में!
 
 
चमकीले किरनीले शस्त्रों
 
काट रहे तम श्यामल तिल-तिल
 
ऊषा का मरघट साजोगे?
 
यही लिख सके चार पहर में?
 
चलो छिया-छी हो अन्तर में!
 
 
ये अंगारे, कहते आये
 
ये जी के टुकडे, ये तारे
 
`आज मिलोगे' `आज मिलोगे',
 
पर हम मिलें न दुनिया-भर में
 
चलो छिया-छी हो अन्तर में!
</poem>
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