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18:36, 28 अप्रैल 2009 का अवतरण

उम्र

पकड़ती है - कमर

फिसलती हुई

खेलती है - पीठ के मैदान में

और धँसा देती है - देह


बुढ़ापा

बैठता है - कंधे पर

पकड़ता है गला

और चेहरे को कसता है

अपने पंजे के भीतर


उम्र का शिकंजा

अपनी रगड़ से चेहरे पर

बनाता है - बुढ़ापे का जाल

खुरचता है यौवन की चमक

और चिपकाता है - झुर्रियों का जाल

जिसमें समेटकर

ले जाती है - मृत्यु

उसे

सबसे बेख़बर लोक में ।