भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"मुझको आँगन में दिखा / विजय वाते" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विजय वाते |संग्रह= दो मिसरे / विजय वाते }} <poem> मुझको ...)
 
(कोई अंतर नहीं)

08:18, 11 मई 2009 के समय का अवतरण

मुझको आँगन में दिखा पदचिन्ह इक उभरा हुआ।
वो ही आया था यहाँ पर या मुझे धोखा हुआ?

उस के जाते ही बिखर जाएगी सारी क़ायनात,
है वो मेरे सामने तो वक़्त है ठहरा हुआ।

ये नज़र उस रूप ठहरे भला तो किस तरह,
है नज़र में वो नज़र की राह फैला हुआ।

मेरे घर में ज़िन्दगी की उम्र बस उतनी ही थी,
जब तलक था नाम उनका हर तरफ बिखरा हुआ।

क्या करूँ, क्या-क्या करूँ, कैसे करूँ उसका बयां,
वो तो इक अहसास है, अन्दर कहीं उतरा हुआ।