भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"जहाँ तलक भी ये सेहरा दिखाई देता है / शकेब जलाली" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=साहिर लुधियानवी |संग्रह= }}Category:गज़ल <poem>जहाँ तलक ...) |
Pratishtha (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
{{KKGlobal}} | {{KKGlobal}} | ||
{{KKRachna | {{KKRachna | ||
− | |रचनाकार= | + | |रचनाकार=शकेब जलाली |
|संग्रह= | |संग्रह= | ||
}}[[Category:गज़ल]] | }}[[Category:गज़ल]] |
00:15, 15 मई 2009 का अवतरण
जहाँ तलक भी ये सेहरा दिखाई देता है
मेरी तरह से अकेला दिखाई देता है
न इतना तेज़ चले सर-फिरी हवा से कहो
शजर पे एक ही पत्ता दिखाई देता है
बुरा ना मानिये लोगों की ऐब-जूई का
इंहें तो दिन का भी साया दिखाई देता है
ये एक अब्र का टुकरा कहाँ कहाँ बरसे
तमाम दश्त ही प्यासा दिखाई देता है
वो अलविदा का मंज़र वो भिगती पलकें
पास-ए-ग़ुबार भी क्या क्या दिखाई देता है
मेरी निगाह से छुप कर कहाँ रहेगा कोई
के अब तो संग भी शीशा दिखाई देता है
सिमट के रह दये आख़िर पहाड से क़द भी
ज़मीं से हर कोई ऊँचा दिखाई देता है
ये किस मक़ाम पे लाई है जुस्तजू तेरी
जहाँ से अर्श भी नीचा दिखाई देता है
खिली है दिल में किसी के बदन की धूप "शकेब"
हर एक फूल सुनहरा दिखाई देता है