भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"एक रहगुज़र पर / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ |संग्रह= }} Category:ग़ज़ल <poem>वो जिसक...)
 
पंक्ति 6: पंक्ति 6:
 
[[Category:ग़ज़ल]]
 
[[Category:ग़ज़ल]]
 
<poem>वो जिसकी दीद में लाखों मस्सरतें पिन्हां
 
<poem>वो जिसकी दीद में लाखों मस्सरतें पिन्हां
वो हुस्न जिसकी तमन्ना मे जन्नतें पिन्हां  
+
वो हुस्न जिसकी तमन्ना में जन्नतें पिन्हां  
  
 
हज़ार फित्ने तहे-पा-ए-नाज़ खाकनशीं
 
हज़ार फित्ने तहे-पा-ए-नाज़ खाकनशीं
 
हर एक निगाह खुमारे-शबाब से रंगीं  
 
हर एक निगाह खुमारे-शबाब से रंगीं  
  
शबाब, जिससे तखय्युल पे बिजलियां बरसें
+
शबाब, जिससे तखय्युल पे बिजलियाँ बरसें
विक़ार जिसकी रक़ाबत को शोखियां तरसें  
+
विक़ार जिसकी रक़ाबत को शोखियाँ तरसें  
  
 
अदा-ए-लग्ज़िशे-पा पर क़यामतें क़ुर्बां
 
अदा-ए-लग्ज़िशे-पा पर क़यामतें क़ुर्बां
पंक्ति 23: पंक्ति 23:
 
ज़बाने-शेर को तारीफ करते शर्म आये  
 
ज़बाने-शेर को तारीफ करते शर्म आये  
  
वो होंठ फ़ैज़ से जिनके बहारे-लालाफरोश
+
वो होंठ फ़ैज़ से जिनके बहार-ए-लालाफरोश
बहिश्तो-कौसरो-तसनीमो-सलसबील ब-दोश  
+
बहिश्त-ओ-कौसर-ओ-तसनीम--सलसबील ब-दोश  
  
 
गुदाज़-जिस्म, क़बा जिस पे सज के नाज़ करे
 
गुदाज़-जिस्म, क़बा जिस पे सज के नाज़ करे
 
दराज़ क़द जिसे सर्वे-सही नमाज़ करे  
 
दराज़ क़द जिसे सर्वे-सही नमाज़ करे  
  
गरज़ वो हुस्न जो मोहताज़े-वस्फो-नाम नहीं
+
गरज़ वो हुस्न जो मोहताज़-ए-वस्फ-ओ-नाम नहीं
वो हुस्न जिसक तस्सवुर बशर का काम नहीं  
+
वो हुस्न जिसका तस्सवुर बशर का काम नहीं  
  
 
किसी ज़माने में इस रहगुज़र से गुज़रा था
 
किसी ज़माने में इस रहगुज़र से गुज़रा था
 
ब-सद-गुरूरो-तजम्मुल इधर से गुज़रा था  
 
ब-सद-गुरूरो-तजम्मुल इधर से गुज़रा था  
  
और अब ये राहगुज़र भी है दिलफरेबो-हसीं
+
और अब ये राहगुज़र भी है दिलफरेब-ओ-हसीं
है इसकी खाक मे कैफे-शराबो-शेर मक़ीं  
+
है इसकी खाक मे कैफ-ए-शराब--शेर मक़ीं  
  
 
हवा मे शोखी-ए-रफ्तार की अदाएं हैं
 
हवा मे शोखी-ए-रफ्तार की अदाएं हैं
पंक्ति 42: पंक्ति 42:
  
 
गरज़ वो हुस्न अब इस जा का जुज्वे-मन्ज़र है
 
गरज़ वो हुस्न अब इस जा का जुज्वे-मन्ज़र है
नियाज़े-इश्क़ को इक सिज्दागह मयस्सर है
+
नियाज़-ए-इश्क़ को इक सिज्दागह मयस्सर है

22:02, 15 मई 2009 का अवतरण

वो जिसकी दीद में लाखों मस्सरतें पिन्हां
वो हुस्न जिसकी तमन्ना में जन्नतें पिन्हां

हज़ार फित्ने तहे-पा-ए-नाज़ खाकनशीं
हर एक निगाह खुमारे-शबाब से रंगीं

शबाब, जिससे तखय्युल पे बिजलियाँ बरसें
विक़ार जिसकी रक़ाबत को शोखियाँ तरसें

अदा-ए-लग्ज़िशे-पा पर क़यामतें क़ुर्बां
बयाज़े-रुख पे सहर की सबाहतें क़ुर्बां

सियाह ज़ुल्फों में वारफ्ता नकहतों तो हुजूम
तवील रातों की ख्वाबीदा राहतों का हुजूम

वो आंख जिसके बनाव पे खालिक इतराये
ज़बाने-शेर को तारीफ करते शर्म आये

वो होंठ फ़ैज़ से जिनके बहार-ए-लालाफरोश
बहिश्त-ओ-कौसर-ओ-तसनीम-ओ-सलसबील ब-दोश

गुदाज़-जिस्म, क़बा जिस पे सज के नाज़ करे
दराज़ क़द जिसे सर्वे-सही नमाज़ करे

गरज़ वो हुस्न जो मोहताज़-ए-वस्फ-ओ-नाम नहीं
वो हुस्न जिसका तस्सवुर बशर का काम नहीं

किसी ज़माने में इस रहगुज़र से गुज़रा था
ब-सद-गुरूरो-तजम्मुल इधर से गुज़रा था

और अब ये राहगुज़र भी है दिलफरेब-ओ-हसीं
है इसकी खाक मे कैफ-ए-शराब-ओ-शेर मक़ीं

हवा मे शोखी-ए-रफ्तार की अदाएं हैं
फज़ा मे नर्मी-ए-गुफ्तार की सदाएं हैं

गरज़ वो हुस्न अब इस जा का जुज्वे-मन्ज़र है
नियाज़-ए-इश्क़ को इक सिज्दागह मयस्सर है