भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"रश्मिरथी / द्वितीय सर्ग / भाग 2" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
 
{{KKGlobal}}
 
{{KKGlobal}}
 
{{KKRachna
 
{{KKRachna
|रचनाकार=रामधारी सिंह 'दिनकर'
+
|रचनाकार=रामधारी सिंह "दिनकर"
|संग्रह= रश्मिरथी / रामधारी सिंह 'दिनकर'
+
|संग्रह= रश्मिरथी / रामधारी सिंह "दिनकर"
 
}}
 
}}
 +
 +
[[रश्मिरथी / द्वितीय सर्ग  /  भाग  1|<< पिछला भाग]]
 +
  
 
श्रद्धा बढ़ती अजिन-दर्भ पर, परशु देख मन डरता है,
 
श्रद्धा बढ़ती अजिन-दर्भ पर, परशु देख मन डरता है,
पंक्ति 65: पंक्ति 68:
  
 
पड़ती मुनि की थकी देह पर और थकान मिटाती है।
 
पड़ती मुनि की थकी देह पर और थकान मिटाती है।
 +
 +
 +
[[रश्मिरथी / द्वितीय सर्ग  /  भाग  3|अगला भाग >>]]

19:26, 12 फ़रवरी 2008 का अवतरण

<< पिछला भाग


श्रद्धा बढ़ती अजिन-दर्भ पर, परशु देख मन डरता है,

युद्ध-शिविर या तपोभूमि यह, समझ नहीं कुछ पड़ता है।

हवन-कुण्ड जिसका यह उसके ही क्या हैं ये धनुष-कुठार?

जिस मुनि की यह स्रुवा, उसी की कैसे हो सकती तलवार?


आयी है वीरता तपोवन में क्या पुण्य कमाने को?

या संन्यास साधना में है दैहिक शक्ति जगाने को?

मन ने तन का सिद्ध-यन्त्र अथवा शस्त्रों में पाया है?

या कि वीर कोई योगी से युक्ति सीखने आया है?


परशु और तप, ये दोनों वीरों के ही होते श्रृंगार,

क्लीव न तो तप ही करता है, न तो उठा सकता तलवार।

तप से मनुज दिव्य बनता है, षड् विकार से लड़ता है,

तन की समर-भूमि में लेकिन, काम खड्ग ही करता है।



किन्तु, कौन नर तपोनिष्ठ है यहाँ धनुष धरनेवाला?

एक साथ यज्ञाग्नि और असि की पूजा करनेवाला?

कहता है इतिहास, जगत् में हुआ एक ही नर ऐसा,

रण में कुटिल काल-सम क्रोधी तप में महासूर्य-जैसा!



मुख में वेद, पीठ पर तरकस, कर में कठिन कुठार विमल,

शाप और शर, दोनों ही थे, जिस महान् ऋषि के सम्बल।

यह कुटीर है उसी महामुनि परशुराम बलशाली का,

भृगु के परम पुनीत वंशधर, व्रती, वीर, प्रणपाली का।



हाँ-हाँ, वही, कर्ण की जाँघों पर अपना मस्तक धरकर,

सोये हैं तरुवर के नीचे, आश्रम से किञ्चित् हटकर।

पत्तों से छन-छन कर मीठी धूप माघ की आती है,

पड़ती मुनि की थकी देह पर और थकान मिटाती है।


अगला भाग >>