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'''माँ बूढी़ है'''
 
 
झुककर
अपनी ही छाया के
हर वसंत में माँ की अपने आँगन के अमुवा की बातें
निपट जुगाली-सी लगती हैं
:::सुंदर चेहरों की तस्वीरें मन में टाँके :::किसे भला ये गाल पोपले सोहा करते?
छुट्टी वाली सुबह हुई भी
दिनभर बंद निजी कमरों में
दो पल का भी चैन नहीं था
तब इस माँ को,
:::अब फुर्सत में खाली बैठी :::पल-पल काटे :::पास नहीं पर अब कोई भी।
फुर्सत बेमानी लगती है
अपना होना भी बेमानी
अपने बच्चों में अनजानी
:::माँ बूढी़ है।
कान नहीं सुन पाते उतना
होठों की काली सुरखी है
कमर धरा की ओर झुकी है
:::मिट्टी में अस्तित्व खोजती :::बेकल माँ के :::मन में :::लेकिन :::बेटे के मिलने आने की :::अविचल आशा :::चढी़ हिंडोले झूल रही है,
सूने रस्ते
पाँव टोहती माँ के
चरणों में नतशिर होने का
दिन आने से पहले-पहले.........।
</poem>
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