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&nbsp;&nbsp;'''शीर्षक: '''आदमखोर<br>
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&nbsp;&nbsp;'''रचनाकार:''' [[शुभा]]  
 
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आदमखोर उठा लेता है
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हम औरतें चिताओं को आग नहीं देतीं
छह साल की बच्ची
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क़ब्रों पर मिट्टी नहीं देतीं
लहूलुहान कर देता है उसे
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हम औरतें मरे हुओं को भी
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बहुत समय जीवित देखती हैं
  
अपना लिंग पोंछता है
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सच तो ये है हम मौत को
और घर पहुँच जाता है
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लगभग झूठ मानती हैं
मुँह हाथ धोता है और
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और बिछुड़ने का दुख हम
खाना खाता है
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ख़ूब समझती हैं
 +
और बिछुड़े हुओं को हम
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खूब याद रखती हैं
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वे लगभग सशरीर हमारी
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दुनियाओं में चलते-फिरते हैं
  
रहता है बिल्कुल शरीफ़ आदमी की तरह
+
हम जन्म देती हैं और इसको
शरीफ़ आदमियों को भी लगता है
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कोई इतना बड़ा काम नहीं मानतीं
बिल्कुल शरीफ़ आदमी की तरह।
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कि हमारी पूजा की जाए
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ज़ाहिर है जीवन को लेकर हम
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काफ़ी व्यस्त रहती हैं
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और हमारा रोना-गाना
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बस चलता ही रहता है
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हम न तो मोक्ष की इच्छा कर पाती हैं
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न बैरागी हो पाती हैं
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हम नरक का द्वार कही जाती हैं
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सारे ऋषि-मुनि, पंडित-ज्ञानी
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साधु और संत नरक से डरते हैं
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और हम नरक में जन्म देती हैं
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इस तरह यह जीवन चलता है
 
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01:47, 6 जून 2009 का अवतरण

 सप्ताह की कविता

  शीर्षक: निडर औरतें
  रचनाकार: शुभा

हम औरतें चिताओं को आग नहीं देतीं
क़ब्रों पर मिट्टी नहीं देतीं
हम औरतें मरे हुओं को भी 
बहुत समय जीवित देखती हैं

सच तो ये है हम मौत को
लगभग झूठ मानती हैं
और बिछुड़ने का दुख हम
ख़ूब समझती हैं
और बिछुड़े हुओं को हम
खूब याद रखती हैं
वे लगभग सशरीर हमारी
दुनियाओं में चलते-फिरते हैं

हम जन्म देती हैं और इसको
कोई इतना बड़ा काम नहीं मानतीं
कि हमारी पूजा की जाए

ज़ाहिर है जीवन को लेकर हम 
काफ़ी व्यस्त रहती हैं
और हमारा रोना-गाना
बस चलता ही रहता है

हम न तो मोक्ष की इच्छा कर पाती हैं
न बैरागी हो पाती हैं
हम नरक का द्वार कही जाती हैं

सारे ऋषि-मुनि, पंडित-ज्ञानी
साधु और संत नरक से डरते हैं

और हम नरक में जन्म देती हैं
इस तरह यह जीवन चलता है