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"चंद रुबाइयात / असग़र गोण्डवी" के अवतरणों में अंतर
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सारे आलम में किया तुझ को तलाश। | सारे आलम में किया तुझ को तलाश। | ||
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तू ही बतला है रगेगरदन कहाँ ? | तू ही बतला है रगेगरदन कहाँ ? | ||
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खूब था सहरा, पर ऐ ज़ौके़-जुनूँ। | खूब था सहरा, पर ऐ ज़ौके़-जुनूँ। | ||
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फाड़ने को नित नये दामन कहाँ ? | फाड़ने को नित नये दामन कहाँ ? | ||
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वो लज़्ज़ते-सितम का जो ख़ूगर समझ गये। | वो लज़्ज़ते-सितम का जो ख़ूगर समझ गये। | ||
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अब ज़ुल्म मुझपै है कि सितम गाह-गाह का॥ | अब ज़ुल्म मुझपै है कि सितम गाह-गाह का॥ | ||
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शीशे में मौजे-मय को यह क्या देखते हैं आप। | शीशे में मौजे-मय को यह क्या देखते हैं आप। | ||
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इसमें जवाब है उसी बर्के़- निगाह का॥ | इसमें जवाब है उसी बर्के़- निगाह का॥ | ||
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मेरी वहशत पै बहस-आराइयाँ अच्छी नहीं नासेह! | मेरी वहशत पै बहस-आराइयाँ अच्छी नहीं नासेह! | ||
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बहुत-से बाँध रक्खे हैं गरेबाँ मैंने दामन में॥ | बहुत-से बाँध रक्खे हैं गरेबाँ मैंने दामन में॥ | ||
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इलाही कौन समझे मेरी आशुफ़्ता मिज़ाजी को। | इलाही कौन समझे मेरी आशुफ़्ता मिज़ाजी को। | ||
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क़फ़स में चैन आता है, न राहत है नशेमन में॥ | क़फ़स में चैन आता है, न राहत है नशेमन में॥ | ||
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23:26, 24 जुलाई 2009 का अवतरण
सारे आलम में किया तुझ को तलाश।
तू ही बतला है रगेगरदन कहाँ ?
खूब था सहरा, पर ऐ ज़ौके़-जुनूँ।
फाड़ने को नित नये दामन कहाँ ?
वो लज़्ज़ते-सितम का जो ख़ूगर समझ गये।
अब ज़ुल्म मुझपै है कि सितम गाह-गाह का॥
शीशे में मौजे-मय को यह क्या देखते हैं आप।
इसमें जवाब है उसी बर्के़- निगाह का॥
मेरी वहशत पै बहस-आराइयाँ अच्छी नहीं नासेह!
बहुत-से बाँध रक्खे हैं गरेबाँ मैंने दामन में॥
इलाही कौन समझे मेरी आशुफ़्ता मिज़ाजी को।
क़फ़स में चैन आता है, न राहत है नशेमन में॥