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भगवत रसिक सखी संप्रदाय के टही-संस्थान के आचार्य ललित-मोहिनीदासजी के शिष्य थे। ये भगवत्-भजन में इतने लीन रहते थे कि इन्होंने गुरु के बाद गद्दी के अधिकार को स्वीकार नहीं किया। ये अत्यंत निस्पृह थे। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इन्हें सच्चा प्रेम-योगी बताया है। इनके ग्रंथ 'अनन्य निश्चयात्मक में कुंडलियां, दोहे, छप्पय और कवित्त मिलते हैं। इनके साहित्य में भावपक्ष और कलापक्ष दनों का अच्छा समन्वय है। इन्होंने अपने विषय में कहा है-

नाहीं द्वैताद्वैत हरि, नहीं विशिष्टाद्वैत, बंधे नहीं मतवाद में, ईश्वर इच्छा द्वैत।