"देवदार / कविता वाचक्नवी" के अवतरणों में अंतर
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आकंठ प्रतीक्षा है..........। | आकंठ प्रतीक्षा है..........। | ||
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+ | -वैद्यनाथ उपाध्याय | ||
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+ | रहस्य् का जम्मै देवहारहरु | ||
+ | कटे बटुवाहरूले। | ||
+ | हात फैलाएर | ||
+ | जनु हिम झेल्थे | ||
+ | पीउँथे कुहिरो | ||
+ | छांदथे घाम | ||
+ | धुँवा समेटदथे | ||
+ | देखिंथ्यो घरित्री-सौंदर्यमयी | ||
+ | अब न देवदारी ध्वजा नै छन् | ||
+ | न | ||
+ | आकाशबाट खस्ने बर्फ़ झेल्ने बाहु। | ||
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+ | आधि काटिएका देवदार का ठुटा | ||
+ | उम्रिएका छन् छाती मा | ||
+ | र | ||
+ | म दिन गंदछु | ||
+ | देवदार कहिले फेरि उठेर खडा भई | ||
+ | फैलिने छन्। | ||
+ | हेरूँ... | ||
+ | कैल्हे आउने हो त्यो दिन | ||
+ | आकंठ प्रतिक्षा छ ....। | ||
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15:07, 12 अगस्त 2009 का अवतरण
देवदार
रहस्य के सारे देवदार
काट डाले हैं
बटोही ने।
बाँहें फैलाए जो हिम झेलते थे,
पी लेते थे कोहरा
छान देते थे धूप
धुआँ समेटते थे
दीखती थी धरित्री - सौंदर्यमयी।
अब न देवदारी ध्वजाएँ है
न
आकाश से झरती बर्फ़ झेलने वाली बाँहें।
अधकटे देवदारों के ठूँठ
उग आए हैं छाती पर
और
मैं दिन गिनती हूँ
देवदारों के फिर उठ खड़ा होकर
फैलने के।
देखूँ........
कब आएँ वे दिन
आकंठ प्रतीक्षा है..........।
देवदार [नेपाली अनुवाद]
-वैद्यनाथ उपाध्याय
रहस्य् का जम्मै देवहारहरु
कटे बटुवाहरूले।
हात फैलाएर
जनु हिम झेल्थे
पीउँथे कुहिरो
छांदथे घाम
धुँवा समेटदथे
देखिंथ्यो घरित्री-सौंदर्यमयी
अब न देवदारी ध्वजा नै छन्
न
आकाशबाट खस्ने बर्फ़ झेल्ने बाहु।
आधि काटिएका देवदार का ठुटा
उम्रिएका छन् छाती मा
र
म दिन गंदछु
देवदार कहिले फेरि उठेर खडा भई
फैलिने छन्।
हेरूँ...
कैल्हे आउने हो त्यो दिन
आकंठ प्रतिक्षा छ ....।