भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"साँचा:KKPoemOfTheWeek" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
पंक्ति 6: पंक्ति 6:
 
<tr><td rowspan=2>[[चित्र:Lotus-48x48.png]]</td>
 
<tr><td rowspan=2>[[चित्र:Lotus-48x48.png]]</td>
 
<td rowspan=2>&nbsp;<font size=4>सप्ताह की कविता</font></td>
 
<td rowspan=2>&nbsp;<font size=4>सप्ताह की कविता</font></td>
<td>&nbsp;&nbsp;'''शीर्षक: '''सूत्रधार<br>
+
<td>&nbsp;&nbsp;'''शीर्षक: '''अकाल-दर्शन<br>
&nbsp;&nbsp;'''रचनाकार:''' [[विमल कुमार]]</td>
+
&nbsp;&nbsp;'''रचनाकार:''' [[धूमिल]]</td>
 
</tr>
 
</tr>
 
</table>
 
</table>
  
 
<pre style="overflow:auto;height:21em;background:transparent; border:none">
 
<pre style="overflow:auto;height:21em;background:transparent; border:none">
मैं इन दिनों खेले जा रहे
+
भूख कौन उपजाता है :
एक अजीबोग़रीब नाटक का सूत्रधार हूँ
+
वह इरादा जो तरह देता है
अभी नेपथ्य से ही बोल रहा हूँ
+
या वह घृणा जो आँखों पर पट्टी बाँधकर
कि लोकतन्त्र में किसी बात पर बहस हो सकती है
+
हमें घास की सट्टी मे छोड़ आती है?
इस बात पर भी बहस हो सकती है
+
कि हत्या करना कितना ज़रूरी है एक आदमी की
+
मानवता की रक्षा के लिए
+
कि बलात्कार से महिलाएँ कितनी जागरूक होती हैं
+
अपने अधिकारों के प्रति
+
  
इस नाटक के हर सीन के बाद
+
उस चालाक आदमी ने मेरी बात का उत्तर
एक संवाददाता सम्मेलन होगा, जो क्षेपक है,
+
नहीं दिया।
उसमें बताया जाएगा
+
उसने गलियों और सड़कों और घरों में
कि इन बहसों के नतीजे क्या निकले हैं
+
बाढ़ की तरह फैले हुए बच्चों की ओर इशारा किया
कि आख़िर में कौन सा संकल्प पारित हुआ है
+
और हँसने लगा।
अगले दिन फिर अख़बारों में उनकी ख़बर होगी
+
मुखपृष्ठ पर
+
टी०वी० पर फिर चेहरा नज़र आएगा उनका
+
चारों तरफ़ कैमरों से घिरी होगी उनकी काया
+
फिर एक विधेयक पेश होगा संशोधन के साथ
+
एक प्राहिकरण बनेगा
+
और कुछ नहीं हुआ तो कम से कम अध्यक्ष का चयन ज़रूर होगा
+
  
मैं इस लम्बे और उबाऊ नाटक का सूत्रधार हूँ
+
मैंने उसका हाथ पकड़ते हुए कहा –
लचर कथानक और ढीले सम्वादों से बोर हो चुका हूँ
+
'बच्चे तो बेकारी के दिनों की बरकत हैं'
लेकिन क्या करूँ अब मंच पर आकर बोल रहा हूँ
+
इससे वे भी सहमत हैं
कि लोकतन्त्र में कोई भी जनप्रतिनिधी कह सकता है
+
जो हमारी हालत पर तरस खाकर, खाने के लिए
कि भूखी जनता को पहले अपने राष्ट्रप्रेम का परिचय देना चाहिए
+
रसद देते हैं।
कि नंगी जनता को समझना चाहिए
+
उनका कहना है कि बच्चे
कि बम ज़्यादा ज़रूरी है अंग ढँकने से
+
हमें बसन्त बुनने में मदद देते हैं।
कि बच्चों को भी जान लेना चाहिए
+
युध से ही उनका भविष्य संवर सकता है
+
कि औरतों को भी मान लेना चाहिए
+
कि सौन्दर्य में ही छिपी हुई है उनकी आज़ादी
+
मध्यांतर में इस बात पर विशेष चर्चा होगी
+
कि आज़ाई के पचास साल बाद
+
लुटेरे ही एश का निर्माण कर सकेंगे
+
क्योंकि उनमें अद्भुत्त नेतृत्त्व-क्षमता है
+
कि मक्कार ही ईमानदारी की भाशःआ सिखाएंगे
+
क्योंकि विकास के लिए धूर्तता बहुत ज़रूरी है
+
कि अहंकारी ही ज्ञान का प्रचार करेंगे
+
क्योंकि विनम्रता में तो छिपी होती है मूर्खता
+
  
मैं इस नाटक का सूत्रधार हूँ
+
लेकिन यही वे भूलते हैं
पर निर्देर्शक का दबाव भी मेरे ऊपर बहुत है
+
दरअस्ल, पेड़ों पर बच्चे नहीं
लेकिन मुझे तो सच कहना है लेखक के अनुसार
+
हमारे अपराध फूलते हैं
इसलिए सच कह रहा हूँ
+
मगर उस चालाक आदमी ने मेरी किसी बात का उत्तर
कि नाटक के ख़त्म होने पर
+
नहीं दिया और हँसता रहा – हँसता रहा – हँसता रहा
हर कलाकार का उससे परिचय कराया जाऐगा
+
फिर जल्दी से हाथ छुड़ाकर
यह बताया जाऐगा
+
'जनता के हित में' स्थानांतरित
कि जो व्यक्ति कभी मंच पर आया ही नहीं
+
हो गया।
वही मुख्य नायक था इस नाटक का
+
कि जो शोर सुनाई दे रहा था आपको अभी तक
+
वह दरअसल नाटक का संगीत था
+
कि सभागार में जो अंधेरा छाया था
+
वह लाइटिंग के ही कमाल का नतीजा था
+
  
दर्शको! इस नाटक के अभी और शो होंगे
+
मैंने खुद को समझाया – यार!
यह नाटक अगली सदी में भी
+
उस जगह खाली हाथ जाने से इस तरह
इसी तरह हर शहर में खेला जाऐगा
+
क्यों झिझकते हो?
 +
क्या तुम्हें किसी का सामना करना है?
 +
तुम वहाँ कुआँ झाँकते आदमी की
 +
सिर्फ़ पीठ देख सकते हो।
  
नाट्य-समीक्षको!
+
और सहसा मैंने पाया कि मैं खुद अपने सवालों के
अगर भारतीय रंगमंच को बचाना है
+
सामने खड़ा हूँ और
तो कुछ कुछ आप लोगों को भी करना होगा
+
उस मुहावरे को समझ गया हूँ
इस समय नाट्य लेखन,
+
जो आज़ादी और गांधी के नाम पर चल रहा है
अभिनय
+
जिससे भूख मिट रही है, न मौसम
प्रस्तुति
+
बदल रहा है।
सब ख़तरे में है
+
लोग बिलबिला रहे हैं (पेड़ों को नंगा करते हुए)
 +
पत्ते और छाल
 +
खा रहे हैं
 +
मर रहे हैं, दान
 +
कर रहे हैं।
 +
जलसों-जुलूसों में भीड़ की पूरी ईमानदारी से
 +
हिस्सा ले रहे हैं और
 +
अकाल को सोहर की तरह गा रहे हैं।
 +
झुलसे हुए चेहरों पर कोई चेतावनी नहीं है।
 +
 
 +
मैंने जब उनसे कहा कि देश शासन और राशन...
 +
उन्होंने मुझे टोक दिया है।
 +
अक्सर ये मुझे अपराध के असली मुकाम पर
 +
अँगुली रखने से मना करते हैं।
 +
जिनका आधे से ज़्यादा शरीर
 +
भेड़ियों ने खा लिया है
 +
वे इस जंगल की सराहना करते हैं –
 +
'भारतवर्ष नदियों का देश है।'
 +
 
 +
बेशक यह ख्याल ही उनका हत्यारा है।
 +
यह दूसरी बात है कि इस बार
 +
उन्हें पानी ने मारा है।
 +
 
 +
मगर वे हैं कि असलियत नहीं समझते।
 +
अनाज में छिपे उस आदमी की नीयत
 +
नहीं समझते
 +
जो पूरे समुदाय से
 +
अपनी गिज़ा वसूल करता है –
 +
कभी 'गाय' से
 +
कभी 'हाथ' से
 +
 
 +
'यह सब कैसे होता है' मैं उसे समझाता हूँ
 +
मैं उन्हें समझाता हूँ –
 +
यह कौनसा प्रजातान्त्रिक नुस्खा है
 +
कि जिस उम्र में
 +
मेरी माँ का चेहरा
 +
झुर्रियों की झोली बन गया है
 +
उसी उम्र की मेरी पड़ौस की महिला
 +
के चेहरे पर
 +
मेरी प्रेमिका के चेहरे-सा
 +
लोच है।
 +
 
 +
ले चुपचाप सुनते हैं।
 +
उनकी आँखों में विरक्ति है :
 +
पछतावा है;
 +
संकोच है
 +
या क्या है कुछ पता नहीं चलता।
 +
वे इस कदर पस्त हैं :
 +
 
 +
कि तटस्थ हैं।
 +
और मैं सोचने लगता हूँ कि इस देश में
 +
एकता युद्ध की और दया
 +
अकाल की पूंजी है।
 +
क्रान्ति –
 +
यहाँ के असंग लोगों के लिए
 +
किसी अबोध बच्चे के –
 +
हाथों की जूजी है।
 
</pre>
 
</pre>
 
<!----BOX CONTENT ENDS------>
 
<!----BOX CONTENT ENDS------>
 
</div><div class='boxbottom'><div></div></div></div>
 
</div><div class='boxbottom'><div></div></div></div>

16:10, 15 अगस्त 2009 का अवतरण

Lotus-48x48.png  सप्ताह की कविता   शीर्षक: अकाल-दर्शन
  रचनाकार: धूमिल
भूख कौन उपजाता है :
वह इरादा जो तरह देता है
या वह घृणा जो आँखों पर पट्टी बाँधकर
हमें घास की सट्टी मे छोड़ आती है?

उस चालाक आदमी ने मेरी बात का उत्तर
नहीं दिया।
उसने गलियों और सड़कों और घरों में
बाढ़ की तरह फैले हुए बच्चों की ओर इशारा किया
और हँसने लगा।

मैंने उसका हाथ पकड़ते हुए कहा –
'बच्चे तो बेकारी के दिनों की बरकत हैं'
इससे वे भी सहमत हैं
जो हमारी हालत पर तरस खाकर, खाने के लिए
रसद देते हैं।
उनका कहना है कि बच्चे
हमें बसन्त बुनने में मदद देते हैं।

लेकिन यही वे भूलते हैं
दरअस्ल, पेड़ों पर बच्चे नहीं
हमारे अपराध फूलते हैं
मगर उस चालाक आदमी ने मेरी किसी बात का उत्तर
नहीं दिया और हँसता रहा – हँसता रहा – हँसता रहा
फिर जल्दी से हाथ छुड़ाकर
'जनता के हित में' स्थानांतरित
हो गया।

मैंने खुद को समझाया – यार!
उस जगह खाली हाथ जाने से इस तरह
क्यों झिझकते हो?
क्या तुम्हें किसी का सामना करना है?
तुम वहाँ कुआँ झाँकते आदमी की
सिर्फ़ पीठ देख सकते हो।

और सहसा मैंने पाया कि मैं खुद अपने सवालों के
सामने खड़ा हूँ और
उस मुहावरे को समझ गया हूँ
जो आज़ादी और गांधी के नाम पर चल रहा है
जिससे न भूख मिट रही है, न मौसम
बदल रहा है।
लोग बिलबिला रहे हैं (पेड़ों को नंगा करते हुए)
पत्ते और छाल
खा रहे हैं
मर रहे हैं, दान
कर रहे हैं।
जलसों-जुलूसों में भीड़ की पूरी ईमानदारी से
हिस्सा ले रहे हैं और
अकाल को सोहर की तरह गा रहे हैं।
झुलसे हुए चेहरों पर कोई चेतावनी नहीं है।

मैंने जब उनसे कहा कि देश शासन और राशन...
उन्होंने मुझे टोक दिया है।
अक्सर ये मुझे अपराध के असली मुकाम पर
अँगुली रखने से मना करते हैं।
जिनका आधे से ज़्यादा शरीर
भेड़ियों ने खा लिया है
वे इस जंगल की सराहना करते हैं –
'भारतवर्ष नदियों का देश है।'

बेशक यह ख्याल ही उनका हत्यारा है।
यह दूसरी बात है कि इस बार
उन्हें पानी ने मारा है।

मगर वे हैं कि असलियत नहीं समझते।
अनाज में छिपे उस आदमी की नीयत
नहीं समझते
जो पूरे समुदाय से
अपनी गिज़ा वसूल करता है –
कभी 'गाय' से
कभी 'हाथ' से

'यह सब कैसे होता है' मैं उसे समझाता हूँ
मैं उन्हें समझाता हूँ –
यह कौनसा प्रजातान्त्रिक नुस्खा है
कि जिस उम्र में
मेरी माँ का चेहरा
झुर्रियों की झोली बन गया है
उसी उम्र की मेरी पड़ौस की महिला
के चेहरे पर
मेरी प्रेमिका के चेहरे-सा
लोच है।

ले चुपचाप सुनते हैं।
उनकी आँखों में विरक्ति है :
पछतावा है;
संकोच है
या क्या है कुछ पता नहीं चलता।
वे इस कदर पस्त हैं :

कि तटस्थ हैं।
और मैं सोचने लगता हूँ कि इस देश में
एकता युद्ध की और दया
अकाल की पूंजी है।
क्रान्ति –
यहाँ के असंग लोगों के लिए
किसी अबोध बच्चे के –
हाथों की जूजी है।