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"आँख और यंत्रलोक / श्रीनिवास श्रीकांत" के अवतरणों में अंतर

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(नया पृष्ठ: <poem> जल पर उभरती है एक आँख और सलवटों पर सूर्य के हज़ार बिंब थामे है ...)
 
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जल पर उभरती है एक आँख
 
जल पर उभरती है एक आँख

21:50, 21 अगस्त 2009 का अवतरण

जल पर उभरती है एक आँख
और सलवटों पर सूर्य के
हज़ार बिंब
थामे है धरती अपने उरोज़ों पर
आकाश पर डिम्ब
दनदनाकर चलती हैं गाड़ियाँ
राजपथों पर

हड़बड़ा कर जागता है नगर
समुद्र लेता है करवट
कमर तक नींद में डूबा मनुष्य
लौट आता है बाहर
और घुलने लगता है
पानी पर टिकी आँख में

घुलनशील हो गया है मनुष्य
जैसे बर्फ़
जैसे बेमेल रंगों का मिश्रण
जैसे खोई हुई चेतना का प्रवाह

खिड़कियों तक सरक आई है धूप
शीशों पर पानी की बे आवाज़ छपछप
शीशों के पार बाहर है समुद्र
बाहर है नगर
चिमनियों वाला पागल नगर
और चर्चा के दूर कहीं
बजता है गजर
सजता है बाज़ार एक बार फिर
अन्दर तो शैय्या है एक
एक शव
और उछलती हुई मछली

गाड़ी जब गुज़रती है पुल से
अंधेरे में आधी रात
सहम-सहम उतरता है दर्द
सीढ़ियाँ घुमावदार
आँखों में धँसता है अँधेरा
भवन की पीठ पर हँसता है पिशाच
गाड़ियाँ गिनते-गिनते
होती है सुबह
आँखें टोहती अँधेरे में
एक स्तब्ध से दूसरा स्तब्ध
पक्षी था आदमी कभी
मेहराब दर मेहराब
दालान दर दालान
देता जल को दृष्टि
सृष्टि को खोज का विकल्प
पर आज
उड़ता बिना पँख
उड़ाता जहाज़
फैंकता तश्तरियाँ

छोटा पड़ गया है अंतरिक्ष
और पृथ्वी
कल्प्वृक्ष से टंगा
भ्रमरियों का छत्ता
पक्षी नहीं रहा मनुष्य
ज़हन में कल्पना
और दाँतों में जहर लिये
डंसता है अपनी नाभि को आदमी
वक्त से कुरेदता
माथे का व्रण
मट्टी में खोजता नायाब मणि
सससनीखेज़ कथा-प्रसंग
खोजता अपने यात्रियों के जाविये
दफ़्न अतीत की खण्डित राहों पर

समुद्र तट
खुले विस्तार में
है नगर का सीमांत
यहाँ से अनेक लकीरें आती हैं बनती-बिगड़ती
नज़र

उस पार
पानी की सलवटों पर
जहाँ उभरी है आँख

यह आँख आकाश की है
समुद्र है जिसका मूल
ज़मीन है जिसका विकल्प
सोच सोच पग धर रहा एक पुरुष
अपने में अनन्त
केन्द्रित आँख जैसे करती
वृत्त का विश्लेषण
और विश्लेशषण के बाद
आँकड़ों का उच्छिष्ट
करती समुद्र को समर्पित
गणित नहीं है नदी
और न आँकड़े रफ़्तार
ईंट पर ईंट पर ईंट
देह, ईमारतें और कंकरीट
मय दानव का महल
रावण की सीढ़ी
या चारपाई से बंधे
काल भ्रम

घिसट रहा है काल से बंधा
आइंस्टीन का मस्तिष्क
ब्रह्माण्ड के अग्नि पथों पर
घूमते हुए पिण्डों के साथ
वह बन गया है
सूर्य का 'छिरबन'

आणविक तहख़ानों में
छटपटाती है पृथ्वी की आँत
नीतियों को चबाते हैं
कूटनीतिज्ञ मकर के दाँत

शुरू क्यों होती है नगर से हर सभ्यता
होने को विलीन काल के असंभव प्रवाह में
लील लेती जिसे ज़मीन
क्या आदमी की पहचान
है सभ्यता की हिस्र चोंच
खूनी गरुड़
या वैभव की रक्तशोषी तामझाप

लेकिन नहीं
सुनो
आदमी की पहचान सिर्फ आदमी
उसकी पहचान है सूर्य का रफ़्ता-रफ़्ता
समुद्र में जज़्ब होना

या नदी घाटियों की सौम्य संस्कृतियाँ
बहुत कुछ हुआ है इन पिछली सदियों में
हर युद्ध के बाद आदमी हारा है
क्योंकि उसके पाँवों में पारा है
वर्ना ऐथेंस से तक्षशिला
और रोम से एलैक्साण्ड्रिया
कोई कम दूर नही थी
आखिर पाण्डुलिपियाँ जला
क्या बच गया रोम
यूनानी दरक़्त को
नहीं डंसा तक्षक ने

खोज बदलती है लोभ में
जातियों के चंगुल में जब फंसता है इतिहास
चाहे हो महाभारत
इडिप्सीय गृहदाह
या पणियों की देशांतर भटकन
हर मोहभंग के बाद
उफान को पी जाता है समुद्र

प्रश्न उठता है
क्या है आदमी की ज़ात
इलियट,कॉकोश्का,या वैगनर
चंगेज़ तुतुन्ख़मन या हिटलर
बुद्ध तो ऐश्वर्य नहीं
और न ईसा आदमी की सनक
सनक तो है जातियों के ज़हन की ठनक
सहमी श्रुतियों में भय की भनक
चहकते हुए पक्षियों को
सुनता है केवल लॉर्का
या उदास पॉल क्ली युद्ध का मारा
रंगों से लबरेज़ पिकासो
समझता है
पूरे ग्लोब के स्पेन
स्पेन का घोड़ा
और यूरोप की चाबी भरा
खिलौना

पर यंत्र-लोक में
खण्डित श्लोक सा
क्यों भटकता होगा आदमी
चिमनियाँ क्यों उछालती रहती हैं धुआँ
आकाश के दायरे में
सहमी-सहमी बस्तियां
उखड़े-उखड़े लोग
क्यों भूल गये हैं अपना सूत्र स्थान

एक मटमैला बोध
दुर्गंध की तरह अटका है हलक में
गणित और गुणा के जावियों में
एक से दो
दो से चार
और चार से सोलह

यंत्र लोक
इच्छाओं का अनंत-कोक
एय्यार
अपनी तहों में छुपाए तृषा का साज़ोसामान
आडमी की खोह में टोहता सर्प
लन्दन से तोक्यो
तोक्यो से मॉस्को
मास्को से वाशिंगटन
बिछाता बारूदी सुरंग
पानी की सलवटों पर
देखती रहती आँख
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