भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"गिरे ताड़ से /नचिकेता" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नचिकेता }} {{KKCatNavgeet}} <poem> गिरे ताड़ से मगर बीच में ही ख...) |
(कोई अंतर नहीं)
|
17:22, 24 अगस्त 2009 के समय का अवतरण
गिरे ताड़ से
मगर बीच में ही
खजूर पर हम अँटके।
घर की झोल लगी दीवारों पर हैं
चमगादड़ लटके
खूस गए हैं काठ
धरन, ओलती, दरवाज़े,चौखट के
और न जीवित रहे
याद में गीत
पनघट के।
साँप सूंघ जाने के कारण हम लगते
माहुर-माते
उखड़ रही साँसों से
कैसे आँखों की उलटन जातें
नागफनी के जंगल में
उम्मीदों के
बादुर भटके।
पूरी नींद न हम सो पाते
अब तक
मिले दिलासे से
जब तक सोने बदले
गए यहाँ हैं पीतल-काँसे से
पानी कहाँ रखे हम
पेंदी तक हैं
चिसक गए मटके।