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− | * [किसी से दिल की हिकायत कभी कहा नहीं की / फ़राज़]] | + | * [[किसी से दिल की हिकायत कभी कहा नहीं की / फ़राज़]] |
− | * [मुस्तक़िल महरूमियों पर भी तो दिल माना नहीं / फ़राज़]] | + | * [[मुस्तक़िल महरूमियों पर भी तो दिल माना नहीं / फ़राज़]] |
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* [[कल हमने बज़्में यार में क्या-क्या शराब पी / फ़राज़]] | * [[कल हमने बज़्में यार में क्या-क्या शराब पी / फ़राज़]] |
16:25, 25 अगस्त 2009 का अवतरण
ज़िंदगी ! ए ज़िंदगी !
रचनाकार | अहमद फ़राज़ |
---|---|
प्रकाशक | वाणी प्रकाशन, 21- ए , दरिया गंज नई दिल्ली 110002 |
वर्ष | 2008 |
भाषा | हिन्दी |
विषय | |
विधा | ग़ज़ल |
पृष्ठ | 135 |
ISBN | 978-81-8143-680-1 |
विविध |
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- जिससे ये तबियत बड़ी मुश्किल से लगी थी / फ़राज़
- तू पास भी हो तो दिल-ए-बेक़रार अपना है / फ़राज़
- अब वो झोंके कहाँ सबा जैसे / फ़राज़
- फिर उसी रहगुज़ार पर शायद / फ़राज़
- बेसर-ओ-सामाँ थे लेकिन इतना अंदाज़ा नहीं था / फ़राज़
- बेनयाज़-ए-गम-ए-पैमाने वफ़ा हो जाना / फ़राज़
- पयाम आए हैं उस यार-ए-बेवफ़ा के मुझे / फ़राज़
- जब तेरी याद के जुगनू चमके / फ़राज़
- हर एक बात न क्यों ज़हर सी हमारी लगे / फ़राज़
- ऐसे चुप हैं कि ये मंजिल भी कड़ी हो जैसे / फ़राज़
- रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ / फ़राज़
- कुर्बतों में भी जुदाई के ज़माने मांगे / फ़राज़
- न हरीफ-ए-जाँ न शरीक-ए-ग़म, शब्-ए-इंतज़ार कोई तो हो / फ़राज़
- दिल तो वह बर्ग-ए-खिजां है कि हवा ले जाए / फ़राज़
- ख़ामोश हो क्यों दाद-ए-ज़फा क्यों नहीं देते / फ़राज़
- दिल बहलता है कहाँ अंजुम-ओ-महताब से भी / फ़राज़
- वफ़ा के बाब में इल्ज़ाम-ए-आशिक़ी न लिया / फ़राज़
- ज़ख़्म को फूल तो सरसर को सबा कहते हैं / फ़राज़
- तेरा ग़म अपनी जगह दुनिया के ग़म अपनी जगह / फ़राज़
- वह जो आ जाते थे आँखों में सितारे लेकर / फ़राज़
- किसी से दिल की हिकायत कभी कहा नहीं की / फ़राज़
- मुस्तक़िल महरूमियों पर भी तो दिल माना नहीं / फ़राज़
- चली है शहर में कैसी हवा उदासी की / फ़राज़
- कल हमने बज़्में यार में क्या-क्या शराब पी / फ़राज़