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कुछ न हुआ, न हो।<br>
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मुझे विश्व का सुख, श्री, यदि केवल<br>
मुझे विश्व का सुख, श्री, यदि केवल
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पास तुम रहो!<br>
पास तुम रहो!
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मेरे नभ के बादल यदि न कटे-<br>
मेरे नभ के बादल यदि न कटे-
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चन्द्र रह गया ढका,<br>
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तिमिर रात को तिरकर यदि न अटे<br>
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ले गगन-भास का,<br>
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रहेंगे अधर हँसते, पथ पर, तुम<br>
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हाथ यदि गहो।<br>
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बहु रस साहित्य विपुल यदि न पढ़ा<br>
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मन्द सबों ने कहा,<br>
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मेरा काव्यानुमान यदि न बढ़ा<br>
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ज्ञान जहाँ का रहा,<br>
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रहे, समझ है मुझमें पूरी, तुम<br>
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कथा यदि कहो।<br><br>
कथा यदि कहो।
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23:02, 28 अक्टूबर 2006 का अवतरण

लेखक: सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

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कुछ न हुआ, न हो।
मुझे विश्व का सुख, श्री, यदि केवल
पास तुम रहो!
मेरे नभ के बादल यदि न कटे-
चन्द्र रह गया ढका,
तिमिर रात को तिरकर यदि न अटे
ले गगन-भास का,
रहेंगे अधर हँसते, पथ पर, तुम
हाथ यदि गहो।
बहु रस साहित्य विपुल यदि न पढ़ा
मन्द सबों ने कहा,
मेरा काव्यानुमान यदि न बढ़ा
ज्ञान जहाँ का रहा,
रहे, समझ है मुझमें पूरी, तुम
कथा यदि कहो।