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<td rowspan=2>&nbsp;<font size=4>सप्ताह की कविता</font></td>
 
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<td>&nbsp;&nbsp;'''शीर्षक: '''दिल्ली होने से तो अच्छा है<br>
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<td>&nbsp;&nbsp;'''शीर्षक: '''पास रह के भी बोहत दूर हैं दोस्त<br>
&nbsp;&nbsp;'''रचनाकार:''' [[विनय दुबे]]</td>
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&nbsp;&nbsp;'''रचनाकार:''' [[शकेब जलाली]]</td>
 
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मैं पहाड़ देखता हूँ
 
तो पहाड़ हो जाता हूँ
 
  
पेड़ देखता हूँ
+
पास रह के भी बोहत दूर हैं दोस्त
तो पेड़ हो जाता हूँ
+
अपने हालात से मजबूर हैं दोस्त
  
नदी देखता हूँ
+
तर्क-ए-उल्फत भी नहीं कर सकते
तो नदी हो जाता हूँ
+
साथ देने से भी माज़ूर हैं दोस्त
  
आकाश देखता हूँ
+
गुफ्तगू के लिए उनवां भी नहीं
तो आकाश हो जाता हूँ
+
बात करने पे भी मजबूर हैं दोस्त
  
दिल्ली की तरफ़ तो मैं
+
यह चिराग अपने लिए रहने दे
भूलकर भी नहीं देखता हूँ
+
तेरी रातें भी तो बे-नूर हैं दोस्त
दिल्ली होने से तो अच्छा है
+
अपनी रूखी-सूखी खाकर
+
यहीं भोपाल में पड़ा रहूँ
+
  
 +
सभी पज़मुर्दा हैं महफ़िल में शकेब
 +
मैं परेशान हूँ, रंजूर हैं दोस्त
 
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22:54, 17 सितम्बर 2009 का अवतरण

Lotus-48x48.png  सप्ताह की कविता   शीर्षक: पास रह के भी बोहत दूर हैं दोस्त
  रचनाकार: शकेब जलाली

पास रह के भी बोहत दूर हैं दोस्त
अपने हालात से मजबूर हैं दोस्त

तर्क-ए-उल्फत भी नहीं कर सकते
साथ देने से भी माज़ूर हैं दोस्त

गुफ्तगू के लिए उनवां भी नहीं
बात करने पे भी मजबूर हैं दोस्त

यह चिराग अपने लिए रहने दे
तेरी रातें भी तो बे-नूर हैं दोस्त

सभी पज़मुर्दा हैं महफ़िल में शकेब
मैं परेशान हूँ, रंजूर हैं दोस्त