"बस्ती का पेड़ / नंद भारद्वाज" के अवतरणों में अंतर
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21:14, 22 सितम्बर 2009 के समय का अवतरण
बाहर से आने वाले आघात का
उलट कर कोई उत्तर नहीं दे पाता
पेड़
वह चल कर जा नहीं जा सकता
किसी निरापद जगह की आड़ में
जड़ें डूबी रहती हैं
पृथ्वी की अतल गहराई में
वहीं पोखता रहता है
वह हर एक टहनी और पत्ती में
जीवन संचार
ऐसा घेर-घुमेर छायादार रूंख
हज़ारों-हज़ार पंछियों का
रैन-बसेरा
पीढ़ियों की पावन कमाई
वह पानीदार पेड़
अब सूख रहा है भीतर ही भीतर
ज़मीन की कोख में,
कुदरत के कई रूप देखे हैं
इस हरियल गाछ ने
कई-कई देखे हैं
छप्पन-छिनवे के नरभक्षी अकाल -
बदहवास बस्ती ने
सूँत ली सिरों तक
कच्ची सुकोमल पत्तियाँ
खुरच ली तने की सूखी छाल ,
उन बुरे दिनों के खिलाफ़
पूरी बस्ती के साथ जूझता रहा पेड़
चौपाए आख़िरी दम तक आते रहे
इसी की बिखरती छाँह में !
पास की बरसाती नदी में
अक्सर आ जाया करता था उफ़ान
पानी फैल जाया करता था
समूचे ताल में
लोग अपना जीव लेकर दौड़ आते
इसी के आसरे
और वह समेट लेता था
अपने आगोश में
बस्ती की सारी पीड़ाएँ,
समय बदल गया
बदल गए बस्ती के कारोबार
नदी के मार्ग अब नहीं बहता जल
बहुत संकड़ी और बदबूदार हो उठी हैं
कस्बे की गलियाँ
पुरानी बस्ती को धकेल कर
परे कर दिया गया है नदी के पाट में
और एक नया शहर निकल आया है
इस पुश्तैनी पेड़ के अतराफ,
ऊंचे तिमंज़िलों के बीच
अब चारों तरफ़ से घिर गया है पेड़
जहा~म-तहाँ से काट ली गई हैं
उस फैलती आकांक्षा के
बीच आती शाखाएँ
अखरने-सा लगा है
कुछ भद्र-जनों को पेड़ का अस्तित्व
उनकी नज़र में
वे अच्छे लगते हैं सिर्फ़ उद्यान में !
जब शहर पसरता है
उजड़ जाती हैं पुरानी बस्तियाँ
सिर्फ़ पेड़ जूझते रहते हैं
अपनी ज़मीन के लिए
कुछ अरसे तक ...
पेड़ आख़िर पेड़ है
कुदरत का फलता-फूलता उपहार
वह झेल नहीं पाता
अपनों का ऐसा भीतरघात
रोक नहीं पाता
अपनी ओर आते हुए
ज़हरीले रसायन -
नमी का उतरते जाना
ज़मीन की संधियों में मौन
जड़ों का एक-एक कर
काट लिया जाना -
वह रोक नहीं पाता ...
पहले-पहल सूखी थी
कुछ पीली मुरझाई पत्तियाँ
फिर सूख गई पूरी की पूरी डाल
और तब से बदस्तूर ज़ारी है
तने के भीतर से आती हुई
धमनियों का धीरे-धीरे सूखना -
इसी सूखने के खिलाफ़
निरन्तर लड़ रहा है पेड़ -
क्या नए शहर के लोग
सिर्फ देखते भर रहेंगे
पेड़ का सूखना ? !