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"दोनों चित्र सामने मेरे / हरिवंशराय बच्चन" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
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काले, कड़े, बड़े, बिखरे-से, | काले, कड़े, बड़े, बिखरे-से, | ||
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बेखबरी के हैं संदेसे। | बेखबरी के हैं संदेसे। | ||
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भौंहों में कुछ टेढ़ापन है, | भौंहों में कुछ टेढ़ापन है, | ||
− | दुनिया को है एक | + | दुनिया को है एक चुनौती, |
कभी नहीं झुकने का प्राण है। | कभी नहीं झुकने का प्राण है। | ||
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आँख-मिचौनी छिड़ी परस्पर, | आँख-मिचौनी छिड़ी परस्पर, | ||
− | बेचैनी में, | + | बेचैनी में, बेसब्री में |
लुके-छिपे हैं अपने सुंदर | लुके-छिपे हैं अपने सुंदर | ||
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नयनों के दो द्वार खुले हैं, | नयनों के दो द्वार खुले हैं, | ||
− | समय दे | + | समय दे गया ऐसी दीक्षा, |
− | + | स्वागत सबके लिए यहाँ पर, | |
नहीं किसी के लिए प्रतीक्षा। | नहीं किसी के लिए प्रतीक्षा। |
02:15, 30 सितम्बर 2009 का अवतरण
दोनों चित्र सामने मेरे।
सिर पर बाल घने, घंघराले,
काले, कड़े, बड़े, बिखरे-से,
मस्ती, आजादी, बेफिकरी,
बेखबरी के हैं संदेसे।
माथा उठा हुआ ऊपर को,
भौंहों में कुछ टेढ़ापन है,
दुनिया को है एक चुनौती,
कभी नहीं झुकने का प्राण है।
नयनों में छाया-प्रकाश की
आँख-मिचौनी छिड़ी परस्पर,
बेचैनी में, बेसब्री में
लुके-छिपे हैं अपने सुंदर
सिर पर बाल कढ़े कंघी से
तरतीबी से, चिकने काले,
जग की रुढि़-रीति ने जैसे
मेरे ऊपर फंदें डाले।
भौंहें झुकी हुईं नीचे को,
माथे के ऊपर है रेखा,
अंकित किया जगत ने जैसे
मुझ पर अपनी जय का लेखा।
नयनों के दो द्वार खुले हैं,
समय दे गया ऐसी दीक्षा,
स्वागत सबके लिए यहाँ पर,
नहीं किसी के लिए प्रतीक्षा।