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"प्रेम के प्रति / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"" के अवतरणों में अंतर

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क्षीण बुद्धि-भ्रम में काया,
 
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प्रेम, की थी छाया।
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प्रेम, सदा ही तुम असूत्र हो
 
प्रेम, सदा ही तुम असूत्र हो

23:52, 7 अक्टूबर 2009 के समय का अवतरण

चिर-समाधि में अचिर-प्रकृति जब,
तुम अनादि तब केवल तम;
अपने ही सुख-इंगित से फिर
हुए तरंगित सृष्टि विषम।
तत्वों में त्वक बदल बदल कर
वारि, वाष्प ज्यों, फिर बादल,
विद्युत की माया उर में, तुम
उतरे जग में मिथ्या-फल।

वसन वासनाओं के रँग-रँग
पहन सृष्टि ने ललचाया,
बाँध बाहुओं में रूपों ने
समझा-अब पाया-पाया;
किन्तु हाय, वह हुई लीन जब
क्षीण बुद्धि-भ्रम में काया,
समझे दोनों, था न कभी वह
प्रेम, प्रेम की थी छाया।

प्रेम, सदा ही तुम असूत्र हो
उर-उर के हीरों के हार,
गूँथे हुए प्राणियों को भी
गुँथे न कभी, सदा ही सार।