|रचनाकार=सुमित्रानंदन पंत
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हाय! मृत्यु का ऐसा अमर, अपार्थिव पूजन?
जब विषण्ण, निर्जीव पड़ा हो जग का जीवन!
संग-सौध में हो श्रृंगार मरण का शोभन,
नग्न, क्षुधातुर वास विहीन रहें जीवित जन?
हायमानव! मृत्यु का ऐसा अमर, अपार्थिव पूजनऐसी भी विरक्ति क्या जीवन के प्रति?<br>जब विषण्ण, निर्जीव पड़ा हो जग आत्मा का जीवनअपमान, प्रेत औ\' छाया से रति!!<br>संग-सौध में हो श्रृंगार मरण का शोभनप्रेम अर्चना यही,<br>करें हम मरण को वरण? नग्नस्थापति कर कंकाल, क्षुधातुर वास विहीन रहें जीवित जनभरे जीवन का प्रांगण?<br><br>
मानव! ऐसी भी विरक्ति क्या जीवन के प्रति?<br>आत्मा का अपमानशव को दें हम रंग, प्रेत औ\' छाया से रति!!<br>आदर मानन का प्रेम अर्चना यही, करें हम मरण मानव को वरणहम कुत्सित चित्र बना दे शव का?<br>स्थापति कर कंकालगत युग के मृत आदर्शों के ताज मनोहर मानव के मोहांध हृदय मे किए हुए घर, भरे जीवन का प्रांगण?<br><br>
शव को दें हम रंग, आदर मानन का<br>मानव को हम कुत्सित चित्र बना दे शव का?<br>गत युग के मृत आदर्शों के ताज मनोहर<br>मानव के मोहांध हृदय मे किए हुए घर,<br><br> भूल गये हम जीवन का संदेश अनश्वर,<br>मृतकों के है मृतक जीवतों का है ईश्वर! <br><br/poem>