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"याद / सुमित्रानंदन पंत" के अवतरणों में अंतर

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मेरे एकाकी मन में मौन मधुर स्मृतियाँ भर!<br>
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वह केसरी दुकुल अभी भी फहरा रहा क्षितिज पर,<br>
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विदा हो गई साँझ, विनत मुख पर झीना आँचल धर  
नव असाढ के मेघों से घिर रहा बराबर अम्बर!<br>
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मेरे एकाकी मन में मौन मधुर स्मृतियाँ भर!  
मैं बरामदे में लेटा शैय्या पर, पीडित अवयव,<br>
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वह केसरी दुकुल अभी भी फहरा रहा क्षितिज पर,  
मन का साथी बना बादलों का विषाद है नीरव!<br>
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नव असाढ के मेघों से घिर रहा बराबर अम्बर!  
सक्रिय यह सकरुण विषाद, -मेघों से उमड घुमड कर<br>
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मैं बरामदे में लेटा शैय्या पर, पीडित अवयव,  
भावी के बहुस्वप्न, भाव बहु व्यथित कर रहे अंतर!<br>
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मन का साथी बना बादलों का विषाद है नीरव!  
मुखर विरह दादुर पुकारता उत्कंठित भेकी को,<br>
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सक्रिय यह सकरुण विषाद, -मेघों से उमड घुमड कर  
वर्ह भार से मोर लुभाता मेघ-मुग्ध केकी को,<br>
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भावी के बहुस्वप्न, भाव बहु व्यथित कर रहे अंतर!  
आलोकित हो उठता सुख से मेघों का नभ चंचल,<br>
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मुखर विरह दादुर पुकारता उत्कंठित भेकी को,  
अंतरतम में एक मधुर स्मृति जग जग उठती प्रतिपल।<br>
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वर्ह भार से मोर लुभाता मेघ-मुग्ध केकी को,  
कम्पित करता वक्ष धरा का घन गंभीर गर्जन स्वर,<br>
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आलोकित हो उठता सुख से मेघों का नभ चंचल,  
भू पर आ ही गया उतर शत धाराओं में अम्बर!<br>
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अंतरतम में एक मधुर स्मृति जग जग उठती प्रतिपल।  
भीनी भाप सहज ही साँसों में घुल मिल कर<br>
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कम्पित करता वक्ष धरा का घन गंभीर गर्जन स्वर,  
एक और भी मधुर गंध से हृदय दे रही है भर!<br>
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भू पर आ ही गया उतर शत धाराओं में अम्बर!  
नव असाढ की संध्या में, मेघों के तम में कोमल,<br>
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भीनी भाप सहज ही साँसों में घुल मिल कर  
पीडित एकाकी शैय्या पर, शत भावों से विह्व्ल,<br>
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एक मधुरतम स्मृति पल भर विद्युत सी जल कर उज्जवल<br>
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नव असाढ की संध्या में, मेघों के तम में कोमल,  
याद दिलाती मुझे, हृदय में रहती जो तुम निश्चल!<br><br>
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पीडित एकाकी शैय्या पर, शत भावों से विह्व्ल,  
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एक मधुरतम स्मृति पल भर विद्युत सी जल कर उज्जवल  
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याद दिलाती मुझे, हृदय में रहती जो तुम निश्चल!
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12:18, 13 अक्टूबर 2009 का अवतरण

विदा हो गई साँझ, विनत मुख पर झीना आँचल धर
मेरे एकाकी मन में मौन मधुर स्मृतियाँ भर!
वह केसरी दुकुल अभी भी फहरा रहा क्षितिज पर,
नव असाढ के मेघों से घिर रहा बराबर अम्बर!
मैं बरामदे में लेटा शैय्या पर, पीडित अवयव,
मन का साथी बना बादलों का विषाद है नीरव!
सक्रिय यह सकरुण विषाद, -मेघों से उमड घुमड कर
भावी के बहुस्वप्न, भाव बहु व्यथित कर रहे अंतर!
मुखर विरह दादुर पुकारता उत्कंठित भेकी को,
वर्ह भार से मोर लुभाता मेघ-मुग्ध केकी को,
आलोकित हो उठता सुख से मेघों का नभ चंचल,
अंतरतम में एक मधुर स्मृति जग जग उठती प्रतिपल।
कम्पित करता वक्ष धरा का घन गंभीर गर्जन स्वर,
भू पर आ ही गया उतर शत धाराओं में अम्बर!
भीनी भाप सहज ही साँसों में घुल मिल कर
एक और भी मधुर गंध से हृदय दे रही है भर!
नव असाढ की संध्या में, मेघों के तम में कोमल,
पीडित एकाकी शैय्या पर, शत भावों से विह्व्ल,
एक मधुरतम स्मृति पल भर विद्युत सी जल कर उज्जवल
याद दिलाती मुझे, हृदय में रहती जो तुम निश्चल!