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<td rowspan=2>&nbsp;<font size=4>सप्ताह की कविता</font></td>
 
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<td>&nbsp;&nbsp;'''शीर्षक: '''शव-धर्म <br>
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<td>&nbsp;&nbsp;'''शीर्षक: '''दीपावली <br>
&nbsp;&nbsp;'''रचनाकार:''' [[शमशाद इलाही अंसारी]]</td>
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&nbsp;&nbsp;'''रचनाकार:''' [[शिवप्रसाद जोशी]]</td>
 
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+
अब मैं तुम्हें नहीं छोडूंगी
मैं
+
काट लूंगी तुम्हारी उगुंलियाँ
अब शव बन चुका हूँ
+
खा जाऊंगी तुम्हें
सामाजिक सरोकारों- सक्रियता का अभाव
+
समझे तुम
शव धर्म है
+
अपने सिर से मेरा सिर न टकराओ
मैं, मेरा घर मेरे बच्चे
+
ये बताओ कब आओगे
मेरा संचित-अर्जित अर्थ
+
कहाँ हो तुम
यही सत्य है
+
और ये हँस क्यों रहे हो बेकार में
यही शव धर्म है|
+
तुमने एक उपहार भेजा अच्छा लगा
 
+
तुमने एक पोशाक भेजी अच्छी लगी
मेरे पडौ़स में
+
लेकिन तुम इतनी दूर क्यों हो
कोई भी, कभी भी आकर
+
इतने पास हो और फ़ौरन क्यों नहीं चले आते
हत्या कर सकता है
+
ये कम्प्यूटर तुम्हारा ही तो है
लूट सकता है
+
जहाज़ के टायर नहीं होते
गृहणी को कर सकता है बेआबरु
+
और वे चलते हैं ज़मीन पर
मुझे कोई चीत्कार, कोई आवाज़
+
मेरी गुड़िया का आज जन्मदिन है
सुनाई नहीं देगी।
+
गणेश को सारे लड्डू खिलाओ माँ
 
+
मुझे भी खाना है
मैं निश्च्ल हूँ
+
और अब बाबा से तो मैं नहीं करूंगी बात
निश्प्रह हूँ
+
बस यह कहकर हटती है
क्योंकि, मैं शव हूँ।
+
बेटी
 
+
पिता से इंटरनेट टेलीफ़ोनी करती हुई
मैं चलता फ़िरता हूँ
+
एक अचरज और उलार में निहारती हुई
आजीविका अर्जन हेतु
+
इतने क़रीब उस दुष्ट मनुष्य को
वे सभी क्रियाएँ अंजाम देता हूँ
+
और जो है इतना दूर
जो अन्य सभी करते हैं।
+
मैं गई फुलझड़ी जलाने
 
+
मैं गई अनार फोड़ने
मैं हूँ लोकल ट्रेन में भी
+
बाबा इनकी रंगतों में मेरा अफ़सोस देखना
बसों, हवाई जहाज़ और होटलों मे भी
+
मैं किससे कहूँ मन की बात
मेरे बराबर में खडी़
+
तुम्हें मैं छोड़ूंगी नहीं आना तुम।
इस सुंदर नवयुवती पर
+
आप आसक्त हो सकते हैं
+
कोई अश्लील हरकत कर सकते हैं
+
उदण्डता युक्त साहस है तो
+
चलती ट्रेन में उसका
+
जबरन कर सकते हैं शीलभंग
+
मैं और मेरे जैसे और सभी
+
शवों से भरी इस ट्रेन में
+
कोई चूँ भी नहीं करेगा।
+
 
+
हम सब अपने शव धर्म का
+
अनुशासन जानते हैं
+
अनुपालन जानते हैं
+
उसकी गरिमा पहचानते हैं
+
हम सभी बहुत शिक्षित हैं
+
निरीह,अनपढ़,जाहिल,गँवार,मज़दूर नहीं
+
लड़ना शव धर्म नहीं
+
हम सच्चे शव धर्मी हैं
+
क्योंकि,
+
मैं, मेरा घर मेरे बच्चे
+
मेरा संचित-अर्जित अर्थ
+
यही सत्य है
+
यही शव धर्म है।
+
 
+
तुम कभी भी-कहीं भी
+
अकेले अथवा समुह के साथ
+
मेरी गली में, चौक में
+
बैंक में, भरे बाज़ार में
+
धूप में या अंधेरे में
+
मैं जहाँ कहीं भी हूँ
+
मेरी उपस्थिती सर्वव्यापी है
+
अपराध-हत्या कर सकते हैं
+
क्योंकि मैं ज्ञानी हूँ
+
ध्यानी हूँ,मैं अति-अस्तित्वादी हूँ
+
मैं शव धर्मी हूँ।
+
मुझे ज्ञात है यह विधि-सूत्र
+
मरना-मारना, चीर हरण कोई बुरी बात नहीं
+
मात्र वस्त्रों का विनिमय है
+
जुए की हार जीत है।
+
 
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सृष्टि का यही कथानक है
+
क्योंकि,
+
मैं, मेरा घर मेरे बच्चे
+
मेरा संचित-अर्जित अर्थ
+
यही सत्य है
+
यही शव धर्म है।
+
 
+
तुम स्वतन्त्र हो
+
यह लोकतंत्र है
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तुम्हे आज़ादी है
+
दल की, बल की
+
तुम चाहो तो मेरे समक्ष
+
जला सकते हो पूरी की पूरी
+
हरी भरी, बस्तियाँ
+
पूर्व-चिन्हित महिलाओं का कर सकते हो
+
सामुहिक बलात्कार
+
घौंप सकते हो उनके गुप्तांग में
+
अपने दल का झण्डा
+
कर सकते हो ढेरों हत्यायें
+
जला सकते हो दिनदहाडे़ मानव शरीरों की होली
+
चला सकते हो किसी भी संम्प्रदाय के विरुद्ध
+
एक सामूहिक हिंसक अभियान।
+
 
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तुम भेज सकते हो अपनी फ़ौजें-पुलिस बल
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कश्मीर में, सुदूर उत्तर पूर्व में,
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बस्तर और आंध्र के जंगलों में
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कर सकते हो अनगिनत हत्यायें
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राज्य सुरक्षा के परचम तले
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भर सकते हो जेलें, बिना मुकदमा चलाये
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भून सकते हो सरे बाज़ार
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मानवाधिकारों के होले-चौराहों पर।
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मैं तुम्हे धन दूंगा, यदि कम पडा़ तो
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अपने विदेशी परिजनों से भी
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लेकर तुम्हें दूंगा
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बस, एक छोटी सी विनती के साथ
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हमारे धर्म-गुरु बाबा-बापू-आलिम का
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एक धारावाहिक और लगा देना
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दूरदर्शन पर उसका समय और बढा़ देना
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मेरे घर में शांति रहेगी।
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तुम कुछ भी करो
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मैं चुप हूँ, चुप रहूँगा
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न कुछ देखा है, न देखूंगा
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कुछ सुना है, न सुनूंगा
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क्योंकि मैं जन्मजात शांतिप्रिय हूँ।
+
 
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मैं शव धर्मी हूँ
+
मैं, मेरा घर मेरे बच्चे
+
मेरा संचित-अर्जित अर्थ
+
यही सत्य है
+
यही शव धर्म है।
+
 
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यह जनतंत्र है
+
तुम लड़ो़ चुनाव
+
बनाओ अपनी सरकारें
+
केन्द्र में, राज्यों में
+
चलाओ अपना शासन
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मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ता
+
क्योंकि, मैं मतदान ही नहीं करता।
+
 
+
मेरे बही-खा़तों में
+
एक महत्वपूर्ण पृष्ठ है
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नाम है जिसका
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"दान-खाता"
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वहाँ कई रंग-बिरंगे दलों के
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नाम लिखे हैं
+
मैं योग्यतानुसार दान करता हूँ
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मेरा कोई कार्य नहीं रुकता
+
किसी भी सरकारी कार्यालय में
+
सभी को मालूम है मेरा नाम
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यह गुण मैंने सीखा है
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अपने पूर्वजों से
+
वे अंग्रेज़ों के बडे़ भक्त थे
+
अनके बहुत प्रशंसक थे
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क्योंकि मेरे घर, पडौ़स, मोहल्ले में
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कभी कोई जलसा-जुलूस-प्रदर्शन नहीं होता
+
कोई संघर्ष कोई विद्रोह नहीं होता
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कभी कोई पुलिस-लाठी गोली नहीं
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वही परंपरा आज भी है
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मैं पूर्णत: अहिंसक हूँ
+
मैं विद्रोह नहीं करता
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मैं विरोध नहीं करता
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मैं संघर्ष नहीं करता
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यही शाश्वत नियम है मेरा।
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मुझे सब स्वीकार है
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मैं प्रश्न नहीं करता
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यद्यपि मेरी धमनियों में रक्त प्रवाह है
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हर जीवित प्राणी की भाँति
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मैं साँस लेता हूँ
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मैं चिंतन कर सकता हूँ
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मैं संवेदनशील हूँ
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मैं सक्रिय शुक्राणु वीर्य वाहक हूँ
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मैं प्रजनन सक्षम हूँ
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मुझे अग्नि की प्रज्ज्वलन शक्ति का ज्ञान है।
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परंतु,
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मैं मृत प्राय:हूँ
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मैं एक शव हूँ
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जिसे गिद्ध नहीं खा सकते
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क्योंकि,
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मैं शव धर्मी हूँ
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मैं, मेरा घर मेरे बच्चे
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मेरा संचित-अर्जित अर्थ
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यही सत्य है
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यही शव धर्म है।
+
 
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यही मैं हूँ
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और यही तुम हो।
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'''रचनाकाल: 13.09.2009
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12:38, 20 अक्टूबर 2009 का अवतरण

Lotus-48x48.png  सप्ताह की कविता   शीर्षक: दीपावली
  रचनाकार: शिवप्रसाद जोशी
अब मैं तुम्हें नहीं छोडूंगी
काट लूंगी तुम्हारी उगुंलियाँ
खा जाऊंगी तुम्हें
समझे तुम
अपने सिर से मेरा सिर न टकराओ
ये बताओ कब आओगे
कहाँ हो तुम
और ये हँस क्यों रहे हो बेकार में
तुमने एक उपहार भेजा अच्छा लगा
तुमने एक पोशाक भेजी अच्छी लगी
लेकिन तुम इतनी दूर क्यों हो
इतने पास हो और फ़ौरन क्यों नहीं चले आते
ये कम्प्यूटर तुम्हारा ही तो है
जहाज़ के टायर नहीं होते
और वे चलते हैं ज़मीन पर
मेरी गुड़िया का आज जन्मदिन है
गणेश को सारे लड्डू न खिलाओ माँ
मुझे भी खाना है
और अब बाबा से तो मैं नहीं करूंगी बात
बस यह कहकर हटती है
बेटी
पिता से इंटरनेट टेलीफ़ोनी करती हुई
एक अचरज और उलार में निहारती हुई
इतने क़रीब उस दुष्ट मनुष्य को
और जो है इतना दूर
मैं गई फुलझड़ी जलाने
मैं गई अनार फोड़ने
बाबा इनकी रंगतों में मेरा अफ़सोस देखना
मैं किससे कहूँ मन की बात
तुम्हें मैं छोड़ूंगी नहीं आना तुम।