"लौट आओ / सोम ठाकुर" के अवतरणों में अंतर
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सोम ठाकुर |संग्रह= }} <poem> लौट आओे मांग के सिंदूर की ...) |
|||
पंक्ति 3: | पंक्ति 3: | ||
|रचनाकार=सोम ठाकुर | |रचनाकार=सोम ठाकुर | ||
|संग्रह= | |संग्रह= | ||
+ | |audio=<flashmp3>http://www.kavitakosh.org/audio/Laut Aao Maang ke Sindoor -SomThakur.mp3</flashmp3> | ||
+ | |voiceof=सोम ठाकुर | ||
}} | }} | ||
+ | {{KKRecitalByPoet}} | ||
<poem> | <poem> | ||
− | लौट | + | लौट आओ मांग के सिंदूर की सौगंध तुमको |
नयन का सावन निमंत्रण दे रहा है। | नयन का सावन निमंत्रण दे रहा है। | ||
पंक्ति 11: | पंक्ति 14: | ||
मौन रहना चाहता, पर बिन कहे भी अब रहा जाता नहीं है। | मौन रहना चाहता, पर बिन कहे भी अब रहा जाता नहीं है। | ||
मीत! अपनों से बिगड़ती है बुरा क्यों मानती हो? | मीत! अपनों से बिगड़ती है बुरा क्यों मानती हो? | ||
− | लौट | + | लौट आओ प्राण! पहले प्यार की सौगंध तुमको |
प्रीति का बचपन निमंत्रण दे रहा है। | प्रीति का बचपन निमंत्रण दे रहा है। | ||
पंक्ति 17: | पंक्ति 20: | ||
रूठ जाते डाल से भी फूल अनगिन नींद से गीले नयन भी | रूठ जाते डाल से भी फूल अनगिन नींद से गीले नयन भी | ||
बन गईं है बात कुछ ऐसी कि मन में चुभ गई, तो | बन गईं है बात कुछ ऐसी कि मन में चुभ गई, तो | ||
− | लौट | + | लौट आओ मानिनी! है मान की सौगंध तुमको |
बात का निर्धन निमंत्रण दे रहा है। | बात का निर्धन निमंत्रण दे रहा है। | ||
पंक्ति 23: | पंक्ति 26: | ||
मांगने पर मिल न पाया स्नेह तो यह प्राण-दीपक क्या जलेगा? | मांगने पर मिल न पाया स्नेह तो यह प्राण-दीपक क्या जलेगा? | ||
यह न जलता, किंतु आशा कर रही मजबूर इसको | यह न जलता, किंतु आशा कर रही मजबूर इसको | ||
− | लौट | + | लौट आओ बुझ रहे इस दीप की सौगंध तुमको |
ज्योति का कण-कण निमंत्रण दे रहा है। | ज्योति का कण-कण निमंत्रण दे रहा है। | ||
दूर होती जा रही हो तुम लहर-सी है विवश कोई किनारा, | दूर होती जा रही हो तुम लहर-सी है विवश कोई किनारा, | ||
आज पलकों में समाया जा रहा है सुरमई आंचल तुम्हारा | आज पलकों में समाया जा रहा है सुरमई आंचल तुम्हारा | ||
− | हो न जाए आंख से | + | हो न जाए आंख से ओझल महावर और मेंहदी, |
लौट आओ, सतरंगी श्रिंगार की सौगंध तुम को | लौट आओ, सतरंगी श्रिंगार की सौगंध तुम को | ||
अनमना दपर्ण निमंत्रण दे रहा है। | अनमना दपर्ण निमंत्रण दे रहा है। |
07:46, 21 अक्टूबर 2009 का अवतरण
इस रचना को आप सस्वर सुन सकते हैं: |
आवाज़: सोम ठाकुर |
लौट आओ मांग के सिंदूर की सौगंध तुमको
नयन का सावन निमंत्रण दे रहा है।
आज बिसराकर तुम्हें कितना दुखी मन यह कहा जाता नहीं है।
मौन रहना चाहता, पर बिन कहे भी अब रहा जाता नहीं है।
मीत! अपनों से बिगड़ती है बुरा क्यों मानती हो?
लौट आओ प्राण! पहले प्यार की सौगंध तुमको
प्रीति का बचपन निमंत्रण दे रहा है।
रूठता है रात से भी चांद कोई और मंजिल से चरन भी
रूठ जाते डाल से भी फूल अनगिन नींद से गीले नयन भी
बन गईं है बात कुछ ऐसी कि मन में चुभ गई, तो
लौट आओ मानिनी! है मान की सौगंध तुमको
बात का निर्धन निमंत्रण दे रहा है।
चूम लूं मंजिल, यही मैं चाहता पर तुम बिना पग क्या चलेगा?
मांगने पर मिल न पाया स्नेह तो यह प्राण-दीपक क्या जलेगा?
यह न जलता, किंतु आशा कर रही मजबूर इसको
लौट आओ बुझ रहे इस दीप की सौगंध तुमको
ज्योति का कण-कण निमंत्रण दे रहा है।
दूर होती जा रही हो तुम लहर-सी है विवश कोई किनारा,
आज पलकों में समाया जा रहा है सुरमई आंचल तुम्हारा
हो न जाए आंख से ओझल महावर और मेंहदी,
लौट आओ, सतरंगी श्रिंगार की सौगंध तुम को
अनमना दपर्ण निमंत्रण दे रहा है।
कौन-सा मन हो चला गमगीन जिससे सिसकियां भरतीं दिशाएं
आंसुओं का गीत गाना चाहती हैं नीर से बोझिल घटाएं
लो घिरे बादल, लगी झडि़यां, मचलतीं बिजलियां भी,
लौट आओ हारती मनुहार की सौगंध तुमको
भीगता आंगन निमंत्रण दे रहा है।
यह अकेला मन निमंत्रण दे रहा है।