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|संग्रह=अंकित होने दो / अजित कुमार
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सूरज डूब चुका है,
 
:मेरा मन दुनिया से ऊब चुका है ।
 
::सुबह उषा-किरनों ने मुझको यों दुलराया,
 
::जैसे मेरा तन उनके मन को हो भाया,
 
::शाम हुई तो फेरी सब ने अपनी बाँ हें,
 
::खत्म हुईं दिन-भर की मेरी सारी चाहें
 
:धरती पर फैला अँधियाला,
 
:रंग-बिरंगी आभावाला सूरज डूब चुका है,
 
:मेरा मन दुनिया से ऊब चुका है ।
 
::फूलों ने अपनी मुस्कान बिखेरी भू पर
 
::दिया मुझे खुश रहने का सन्देश निरन्तर,
 
::ज़िन्दा रहने की साधें मुझ तक भी आयीं,
 
::शाम हुई, सरसिज की पाँखें क्या मुरझायीं-
 
:मन का सारा मिटा उजाला,
 
:धरती का श्रृंगार निराला सूरज डूब चुका है,
 
:मेरा मन दुनिया से ऊब चुका है ।
 
::सुरभि,फूल,बादल,विहगों के गीत सजीले,
 
::बीते दिन में देखे कितने स्वप्न सजीले,
 
::दिन भर की खुशियों के साथी चले गये यों,
 
::बने और बिगड़े आँखों में ताश-महल ज्यों,
 
घिरा रात का जादू काला,
 
राख बनी किरनों की ज्वाला, सूरज डूब चुका है,
 
मेरा मन दुनिया से ऊब चुका है ।
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