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<td>&nbsp;&nbsp;'''शीर्षक: '''परसाई जी की बात <br>
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<td>&nbsp;&nbsp;'''शीर्षक: '''पहले ज़मीन बाँटी थी फिर घर भी बँट गया <br>
&nbsp;&nbsp;'''रचनाकार:''' [[नरेश सक्सेना]]</td>
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&nbsp;&nbsp;'''रचनाकार:''' [[शीन काफ़ निज़ाम]]</td>
 
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पैंतालिस साल पहले, जबलपुर में
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पहले ज़मीन बाँटी थी फिर घर भी बँट गया
परसाई जी के पीछे लगभग भागते हुए
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इन्सान अपने आप में कितना सिमट गया  
मैंने सुनाई अपनी कविता
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और पूछा
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क्या इस पर ईनाम मिल सकता है
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"अच्छी कविता पर सज़ा भी मिल सकती है"
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सुनकर मैं सन्न रह गया  
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क्योंकि उस वक़्त वह छात्रों की एक कविता प्रतियोगिता
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की अध्यक्षता करने जा रहे थे
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आज चारों तरफ़ सुनता हूँ
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अब क्या हुआ कि ख़ुद को मैं पहचानता नहीं
वाह-वाह-वाह-वाह, फिर से
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मुद्दत हुई कि रिश्ते का कुहरा भी छँट गया
मंच और मीडिया के लकदक दोस्त
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लेते हैं हाथों-हाथ
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सज़ा जैसी कोई सख़्त बात तक नहीं कहता
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तो शक होने लगता है
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हम मुन्तज़िर थे शाम से सूरज के दोस्तों
परसाई जी की बात पर नहीं
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लेकिन वो आया सर पे तो क़द अपना घट गया
अपनी कविता पर
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गाँवों को छोड़ कर तो चले आए शहर में
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जाएँ किधर कि शहर से भी जी उचट गया
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किससे पनाह मांगे कहाँ जाएँ क्या करें
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फिर आफ़ताब रात का घूँघट उलट गया
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सैलाब-ए-नूर में जो रहा मुझ से दूर-दूर
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वो शख़्स फिर अन्धेरे में मुझसे लिपट गया
 
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20:17, 1 नवम्बर 2009 का अवतरण

Lotus-48x48.png  सप्ताह की कविता   शीर्षक: पहले ज़मीन बाँटी थी फिर घर भी बँट गया
  रचनाकार: शीन काफ़ निज़ाम
पहले ज़मीन बाँटी थी फिर घर भी बँट गया 
इन्सान अपने आप में कितना सिमट गया 

अब क्या हुआ कि ख़ुद को मैं पहचानता नहीं 
मुद्दत हुई कि रिश्ते का कुहरा भी छँट गया 

हम मुन्तज़िर थे शाम से सूरज के दोस्तों 
लेकिन वो आया सर पे तो क़द अपना घट गया 

गाँवों को छोड़ कर तो चले आए शहर में 
जाएँ किधर कि शहर से भी जी उचट गया

किससे पनाह मांगे कहाँ जाएँ क्या करें 
फिर आफ़ताब रात का घूँघट उलट गया 

सैलाब-ए-नूर में जो रहा मुझ से दूर-दूर 
वो शख़्स फिर अन्धेरे में मुझसे लिपट गया