"ग्रीनरूम / अजित कुमार" के अवतरणों में अंतर
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जहाँ पर इन्द्रधनुष पहले-पहले बनते, | जहाँ पर इन्द्रधनुष पहले-पहले बनते, | ||
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जहाँ पर मेघ परस्पर परामर्श करते कि | जहाँ पर मेघ परस्पर परामर्श करते कि | ||
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कैसा रूप धरें जो त्रिभुवन-मोहन हो । | कैसा रूप धरें जो त्रिभुवन-मोहन हो । | ||
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:::जहाँ से दृश्य नए खुलते— | :::जहाँ से दृश्य नए खुलते— | ||
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वहाँ तक जाकर मैं रूक गया । | वहाँ तक जाकर मैं रूक गया । | ||
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याद अब भी मुझको वह रात, | याद अब भी मुझको वह रात, | ||
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बहुत दिन पहले की यह बात… | बहुत दिन पहले की यह बात… | ||
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:::एक नाटक होते देखा : | :::एक नाटक होते देखा : | ||
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:::और अभिनय की हर रेखा | :::और अभिनय की हर रेखा | ||
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:::मुझे रँगती-सी चली गई । | :::मुझे रँगती-सी चली गई । | ||
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:::बहुत उद्विग्न हुआ मैं, और, | :::बहुत उद्विग्न हुआ मैं, और, | ||
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:::--चलूँ अब किसी दूसरे ठौर— | :::--चलूँ अब किसी दूसरे ठौर— | ||
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:::सोचकर, उठा और चल दिया । | :::सोचकर, उठा और चल दिया । | ||
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अचानक वहीं पार्श्व में दिखा | अचानक वहीं पार्श्व में दिखा | ||
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द्वार, जिसपर ‘सज्जागृह’ लिखा । | द्वार, जिसपर ‘सज्जागृह’ लिखा । | ||
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झाँककर मैं भी देखूँ इसे ?- | झाँककर मैं भी देखूँ इसे ?- | ||
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ज्ञात था किसे । | ज्ञात था किसे । | ||
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श्री की होगी ऐसी राह । | श्री की होगी ऐसी राह । | ||
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रँगे जाते थे चेहरे । | रँगे जाते थे चेहरे । | ||
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आह । | आह । | ||
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जान मैं गया, | जान मैं गया, | ||
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गति, लय, भावावेग , | गति, लय, भावावेग , | ||
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हास उन्मुक्त, और उद्वेग— | हास उन्मुक्त, और उद्वेग— | ||
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सभी की रचना का यह केन्द्र । | सभी की रचना का यह केन्द्र । | ||
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सभी ‘अभिनय’ का पहला स्रोत । | सभी ‘अभिनय’ का पहला स्रोत । | ||
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तभी से कुछ ऐसा हो गया | तभी से कुछ ऐसा हो गया | ||
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कि हर सज्जागृह के | कि हर सज्जागृह के | ||
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दरवाज़े से ही | दरवाज़े से ही | ||
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मैं वापस आ गया । | मैं वापस आ गया । | ||
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जहां पर रंग और आकार पुष्प पाते, | जहां पर रंग और आकार पुष्प पाते, | ||
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जहां से स्वप्न सुहाने पलकों पर आते, | जहां से स्वप्न सुहाने पलकों पर आते, | ||
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वहां तक जाकर मैं थम गया । | वहां तक जाकर मैं थम गया । | ||
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नहीं सोचा- ‘रहस्य को करूं अनावृत, नग्न ।‘ | नहीं सोचा- ‘रहस्य को करूं अनावृत, नग्न ।‘ | ||
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नहीं चाहा- ‘सुन्दरता को यों कर दूं भग्न ।‘ | नहीं चाहा- ‘सुन्दरता को यों कर दूं भग्न ।‘ | ||
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इस उलझी-सुलझी यात्रा का | इस उलझी-सुलझी यात्रा का | ||
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था जहां आखिरी ठौर : | था जहां आखिरी ठौर : | ||
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वहां तक पहुंचा- | वहां तक पहुंचा- | ||
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मुड़ आया । | मुड़ आया । | ||
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20:54, 1 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण
जहाँ पर इन्द्रधनुष पहले-पहले बनते,
जहाँ पर मेघ परस्पर परामर्श करते कि
कैसा रूप धरें जो त्रिभुवन-मोहन हो ।
जहाँ से दृश्य नए खुलते—
वहाँ तक जाकर मैं रूक गया ।
याद अब भी मुझको वह रात,
बहुत दिन पहले की यह बात…
एक नाटक होते देखा :
और अभिनय की हर रेखा
मुझे रँगती-सी चली गई ।
बहुत उद्विग्न हुआ मैं, और,
--चलूँ अब किसी दूसरे ठौर—
सोचकर, उठा और चल दिया ।
अचानक वहीं पार्श्व में दिखा
द्वार, जिसपर ‘सज्जागृह’ लिखा ।
झाँककर मैं भी देखूँ इसे ?-
ज्ञात था किसे ।
कि
श्री की होगी ऐसी राह ।
रँगे जाते थे चेहरे ।
आह ।
जान मैं गया,
जान मैं गया कि:
मुद्रा, अंग-भंगिमा,
गति, लय, भावावेग ,
हास उन्मुक्त, और उद्वेग—
सभी की रचना का यह केन्द्र ।
सभी ‘अभिनय’ का पहला स्रोत ।
तभी से कुछ ऐसा हो गया
कि हर सज्जागृह के
दरवाज़े से ही
मैं वापस आ गया ।
जहां पर रंग और आकार पुष्प पाते,
जहां से स्वप्न सुहाने पलकों पर आते,
वहां तक जाकर मैं थम गया ।
नहीं सोचा- ‘रहस्य को करूं अनावृत, नग्न ।‘
नहीं चाहा- ‘सुन्दरता को यों कर दूं भग्न ।‘
और
इस उलझी-सुलझी यात्रा का
था जहां आखिरी ठौर :
वहां तक पहुंचा-
मुड़ आया ।