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हर बार | हर बार |
21:17, 1 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण
हर बार
औरों-औरों को समझ कर
अपने से ही
बदला लेता हूँ
बेईमानी, व्यभिचार, अत्याचार
और शोषण का ।
एक रात
सारी रात
मैं रोता ही रहा ।
किसने मुझे देखा ?
मेरे साथ कौन रोया ?
मेरे दुखते हुए माथे पर
न था
कोई भी स्पर्श…
न रो । न रो ।
मेरे प्यार ।
मेरे पुत्र ।
किसने कहा ?
लोग क्यों जिन्दा रहते हैं ?
लोग सो कैसे पाते हैं ?
क्या
वे सब
अपने को
और
सारी दुनिया को
धोखा देने में
इतने
पटु हैं ?
पत्नियाँ
क्यों नहीं
ख़र्राटे भरते,
गँधाते
अपने पतियों की
गर्दनें
मरोड़ देतीं ?
उनकी छाती । उफ़ । धौंकनी-सी चलती
उनकी छाती में
क्या इतनी भी
घृणा
शेष नहीं ?
अपने बचपन में
सोते और जागते हर वक्त हँसता रहता था ।
किसे मालूम था…
कर्ज़ वह
चुकाना यों पड़ेगा अब ।
उम्र भर ।
आँसू ।
थकान ।
हिचकियाँ ।
सभी चुप-चुप ।
अकेले ।
किसी अनुपस्थित हाथ को
शून्य में
टटोलते हुए ।