|रचनाकार =अज्ञेय
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हर किसी के भीतर
एक गीत सोता है
जो इसी का प्रतीक्षमान होता है
कि कोई उसे छू कर जगा दे
जमी परतें पिघला दे
और एक धार बहा दे।
हर किसी के भीतर<br>पर ओ मेरे प्रतीक्षित मीतप्रतीक्षा स्वयं भी तो है एक गीत सोता है<br>जो इसी का प्रतीक्षमान होता जिसे मैने बार बार जाग कर गाया है<br>कि कोई उसे छू कर जगा दे<br>जमी परतें पिघला दे<br>और एक धार बहा दे।<br><br>जब-जब तुम ने मुझे जगाया है।
पर ओ मेरे प्रतीक्षित मीत<br>प्रतीक्षा स्वयं भी तो है एक गीत<br>जिसे मैने बार बार जाग कर गाया है<br>जब-जब तुम ने मुझे जगाया है।<br><br> उसी को तो आज भी गाता हूँ<br>क्यों कि चौंक- चौंक कर रोज़<br>तुम्हें नया पहचानता हूँ-<br>
यद्यपि सदा से ठीक वैसा ही जानता हूँ।
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