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"वह / श्रीकान्त जोशी" के अवतरणों में अंतर

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00:17, 2 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण

समुद्र के किनारे की चमकती-दमकती नेकलेस-सी सड़क
कुनकुनी धूप और हलके शीत से खु़शगवार मौसम
अच्छा लग रहा है पैदल चलना।
वह मिला
हाथ में बड़ी मोटी और खुरदरी रस्सी के साथ
सिर पर गलफन्दा बांधता हुआ, फेंकता हुआ
खींचता हुआ
उत्तेजित, उद्दीप्त मगर आश्वस्त
पकड़ में कुछ न आ पा रहा था
पर उसकी शक़्ल से
और उसके हाव-भाव से लगता था
वह कोई बहुत बड़ी और ज़बरदस्त वस्तु खींच रहा है
बार-बार खींचने और जूझने का श्रम छुपता न था
मनुष्य की संकल्पवान देह में --
वह जीवित विचार था
कि विचार ने ही वह ऊर्जस्वित-देह धारण की थी
पसीने से लथपथ-लथपथ था वह
साँसों में तेज़ी और ऊष्णा थी।
क्या कर रहे हो बंधु? मैंने पूछा --
‘देख नहीं रहे’ -- क्षोभ और घृणा से बोला वह
कितनी बड़ी, आँखों को थकाने वाली इमारतें हैं?
लोग ऊपर से नीचे देख रहे हैं
हमें नगण्य करते हुए
स्वर्ण से अधिक महंगे कपड़ों में
कितने बेशर्म और जाहिल लगते हैं!
इन गलफन्दों में ये इमारतें फँस रही हैं
हिल रही हैं
और धूज-धूज कर गिर रही हैं।
आवाज़ नहीं सुनाई देती तुम्हें भूकंपों-सी?
नहीं सुनाई देती होंगी शायद
तुम अभी तक भविष्य नहीं सुन सकते
कब तक नहीं सुनोगे
भविष्य सदा भविष्य ही रहेगा?
सब ज़मीन पर आ जाएंगे
वक़्त की बात है .... देखना।
फिर?
फिर क्या सब पैदल चलेंगे
हँसी-ठिठोली करेंगे
और आँसुओं के क्षणों में अकेले नहीं रहेंगे।
सबकी नज़र नीचे से ऊपर की तरफ़ उठेंगी
निर्बाध और निःसंकोच
चन्द्रमा की तरफ़
आकाश की तरफ़
आकाश के बाद के आकाश की तरफ़
वह चलता जा रहा था
उसे फ़ुर्सत न थी
गलफन्दे बाँधता, फेंकता, खींचता, जूझता
पसीने से शराबोर होता
उत्तेजित, उद्दीप्त
उथल-पुथल के भव्य खण्ड-चित्र-सा
सजीव, रोमांचक, गतिशील और भयानक।