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+ | कौन प्रियंवद है कि दंभ कर | ||
+ | इस अभिमन्त्रित कारुवाद्य के सम्मुख आवे? | ||
+ | कौन बजावे | ||
+ | यह वीणा जो स्वंय एक जीवन-भर की साधना रही? | ||
+ | भूल गया था केश-कम्बली राज-सभा को : | ||
− | + | कम्बल पर अभिमन्त्रित एक अकेलेपन में डूब गया था | |
− | + | जिसमें साक्षी के आगे था | |
− | + | जीवित रही किरीटी-तरु | |
− | + | जिसकी जड़ वासुकि के फण पर थी आधारित, | |
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− | + | और कान में जिसके हिमगिरी कहते थे अपने रहस्य। | |
+ | सम्बोधित कर उस तरु को, करता था | ||
+ | नीरव एकालाप प्रियंवद। | ||
− | + | "ओ विशाल तरु! | |
− | + | शत सहस्र पल्लवन-पतझरों ने जिसका नित रूप सँवारा, | |
− | + | कितनी बरसातों कितने खद्योतों ने आरती उतारी, | |
− | + | दिन भौंरे कर गये गुंजरित, | |
− | + | रातों में झिल्ली ने | |
− | + | अनथक मंगल-गान सुनाये, | |
− | + | साँझ सवेरे अनगिन | |
− | + | अनचीन्हे खग-कुल की मोद-भरी क्रीड़ा काकलि | |
+ | डाली-डाली को कँपा गयी-- | ||
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− | + | ओ दीर्घकाय! | |
+ | ओ पूरे झारखंड के अग्रज, | ||
+ | तात, सखा, गुरु, आश्रय, | ||
+ | त्राता महच्छाय, | ||
+ | ओ व्याकुल मुखरित वन-ध्वनियों के | ||
+ | वृन्दगान के मूर्त रूप, | ||
+ | मैं तुझे सुनूँ, | ||
+ | देखूँ, ध्याऊँ | ||
+ | अनिमेष, स्तब्ध, संयत, संयुत, निर्वाक : | ||
+ | कहाँ साहस पाऊँ | ||
+ | छू सकूँ तुझे ! | ||
+ | तेरी काया को छेद, बाँध कर रची गयी वीणा को | ||
− | + | किस स्पर्धा से | |
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00:31, 2 नवम्बर 2009 का अवतरण
सौंप रहा था उसी किरीटी-तरु को
कौन प्रियंवद है कि दंभ कर
इस अभिमन्त्रित कारुवाद्य के सम्मुख आवे?
कौन बजावे
यह वीणा जो स्वंय एक जीवन-भर की साधना रही?
भूल गया था केश-कम्बली राज-सभा को :
कम्बल पर अभिमन्त्रित एक अकेलेपन में डूब गया था
जिसमें साक्षी के आगे था
जीवित रही किरीटी-तरु
जिसकी जड़ वासुकि के फण पर थी आधारित,
जिसके कन्धों पर बादल सोते थे
और कान में जिसके हिमगिरी कहते थे अपने रहस्य।
सम्बोधित कर उस तरु को, करता था
नीरव एकालाप प्रियंवद।
"ओ विशाल तरु!
शत सहस्र पल्लवन-पतझरों ने जिसका नित रूप सँवारा,
कितनी बरसातों कितने खद्योतों ने आरती उतारी,
दिन भौंरे कर गये गुंजरित,
रातों में झिल्ली ने
अनथक मंगल-गान सुनाये,
साँझ सवेरे अनगिन
अनचीन्हे खग-कुल की मोद-भरी क्रीड़ा काकलि
डाली-डाली को कँपा गयी--
चित्र:Veena instrument.jpg
ओ दीर्घकाय!
ओ पूरे झारखंड के अग्रज,
तात, सखा, गुरु, आश्रय,
त्राता महच्छाय,
ओ व्याकुल मुखरित वन-ध्वनियों के
वृन्दगान के मूर्त रूप,
मैं तुझे सुनूँ,
देखूँ, ध्याऊँ
अनिमेष, स्तब्ध, संयत, संयुत, निर्वाक :
कहाँ साहस पाऊँ
छू सकूँ तुझे !
तेरी काया को छेद, बाँध कर रची गयी वीणा को
किस स्पर्धा से
हाथ करें आघात
छीनने को तारों से
एक चोट में वह संचित संगीत जिसे रचने में
स्वंय न जाने कितनों के स्पन्दित प्राण रचे गये।
"नहीं, नहीं ! वीणा यह मेरी गोद रही है, रहे,
किन्तु मैं ही तो
तेरी गोदी बैठा मोद-भरा बालक हूँ,
तो तरु-तात ! सँभाल मुझे,
मेरी हर किलक
पुलक में डूब जाय :
चित्र:Veena instrument.jpg
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