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"अंगार / अज्ञेय" के अवतरणों में अंतर

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|संग्रह=कितनी नावों में कितनी बार / अज्ञेय
 
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एक दिन रूक जाएगी जो लय <br>
हाँ, भाई,   
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उसे अब और क्या सुनना? <br>
वह राह 
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व्यतिक्रम ही नियम हो तो <br>
मुझे मिली थी; 
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उसी की आग में से <br>
कुहरे में दी जैसे मुझे दिखाई 
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बार-बार, बार-बार <br>
मैंने नापी: धीर, अधीर, सहज डगमग, द्रुत, धीरे— 
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मुझे अपने फूल हैं चुनना। <br>
आज जहाँ हूँ, वही वहाँ तक लाई।   
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चिता मेरी है: दुख मेरा नहीं। <br>
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तुम्हारा भी बने क्यों, जिसे मैंने किया है प्यार? <br>
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तुम कभी रोना नहीं, मत <br>
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कभी सिर धुनना। <br>
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टूटता है जो उसी भी, हाँ, कहो संसार <br>
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पर जो टूट को भी टेक दे, ले धार, सहार, <br>
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उस अनन्त, उदार को <br>
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कैसे सकोगे भूल— <br>
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उसे, जिस को वह चिता की आग <br>
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है, होगी, हुताशन— <br>
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जिसे कुछ भी, कभी, कुछ से नहीं सकता मार— <br>
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वही लो, वही रखो साज-सँवार— <br>
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वह कभी बुझने न वाला <br>
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प्यार का अंगार!
  
यहाँ चुक गई डगर: 
 
उलहना नहीं, मानता हूँ पर 
 
आज वहीं हूँ जहाँ कभी था— 
 
एक कुहासे की देहरी पर: 
 
दीख रहा है 
 
पार 
 
रूप—रूपायमान—रूपायित— 
 
पहचाना कुछ: जिधर फिर बढ़ूँ— 
 
धीर, अधीर, सहज, डगमग, द्रुत, धीरे, 
 
हठ धर, 
 
मन में भर 
 
उछाह!   
 
  
कौन कभी फिर लौट वहाँ आया, जिस पथ से 
 
एक बार वह पार गया है? 
 
नहीं, वही वहीं है कहीं और: 
 
यह ठौर 
 
नया है उतना ही जितनी यह राह, 
 
कुहासा, देश-दिशा, यह समय-बिन्दु, 
 
यह मैं भी: 
 
सभी नया है— 
 
नाता ही एक नहीं बदला: 
 
वह एक खोजता राही 
 
एक कुहासे की देहरी पर 
 
लीक धरे पहचाने कुछ-कुछ की 
 
बढ़ता हठ धर 
 
अनजाने कुछ की ओर 
 
भरे मन में उत्साह अतर्कित, निराधार!   
 
 
रूप, 
 
रूपायमान, 
 
रूपायित। 
 
यों गृहीत, 
 
पहचाना। 
 
फिर इस लिए अनृत 
 
एकान्त झूठ!   
 
 
वह कैसे होती यात्रा 
 
जो पहुँचा कर चुक जाती? 
 
झूठा होगा वह तीर्थ 
 
सरोवर, नदी, महासागर का जो किनारा-भर होता। 
 
जहाँ से अपने ही संकल्प 
 
न बन जाते ललकार 
 
नए अनजाने पानी में घुसने की। 
 
ये सम्मुख फूल बहे जाते हैं: 
 
पर क्या जाने वे किस के हैं? 
 
क्या जाने वह डूबा, तैरा, 
 
या तट पर ही फूल डाल कर लौट गया? 
 
या—क्या जाने?—ये फूल स्वयं उस की भस्मी के ही 
 
:::::प्रतीक हैं?   
 
 
यह भी हो सकता है 
 
कोई उस देहरी पर ही बैठ रहे:  <!---"बैठ रहे" ही ठीक है--->
 
जो आएँ उन्हें असीसे, 
 
जाएँ तो, उन्हें बता दे वे पहचाने गलियारे 
 
जो पार स्वयं वह कर आया।   
 
 
हो सकता है: पर मेरे द्वारा नहीं— 
 
अब नहीं। 
 
मैं जिस देहरी पर हूँ 
 
तीर्थ नहीं, 
 
वह सम्पराय है। 
 
हठ में कमी नहीं है, 
 
मेरा संकल्प भी डगमग, 
 
किन्तु (उलहना नहीं) मानता हूँ मैं— 
 
मुझे पूछना है अब—और खोजता हूँ उस को जिस से 
 
::::यह पूछ सकूँ— 
 
'वह दीख रहा है पार मुझे, 
 
पर बोलो, 
 
उस तक जाने का क्या है उपाय— 
 
है क्या उपाय? 
 
रूप: 
 
रूप, 
 
रूपायमान, 
 
रूपायित। 
 
स्पृष्ट। अनृत। 
 
प्रव्रजित!   
 
 
और कहाँ तक यही अनुक्रम! 
 
कितना और कुहासा 
 
कितनी देहरियों पर कितनी ठोकर? 
 
कितना हठ? 
 
कितने-कितने मन—कितना उछाह?'   
 
 
है राह! 
 
कुहासे तक ही नहीं, पार देहरी के। है। 
 
मैं हूँ तो वह भी है, 
 
तीर्थाटन को निकला हूँ 
 
कांधे बांधे हूँ लकड़ियाँ चिता की: 
 
गाता जाता हूँ— 
 
'है, पथ है: 
 
वह जो रुक जाता है कूल-कूल पर बार-बार— 
 
यों नहीं कि वह चुक जाता है: 
 
पर तीर्थ यही तो होते हैं— 
 
अनजाने—यद्यपि वांछित—सम्पराय: 
 
हम होते ही रहते हैं वहाँ पार!'   
 
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|रचनाकार=अज्ञेय
 
|संग्रह=कितनी नावों में कितनी बार / अज्ञेय
 
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{{KKCatKavita}}
 
<poem>
 
एक दिन रूक जाएगी जो लय 
 
उसे अब और क्या सुनना? 
 
व्यतिक्रम ही नियम हो तो 
 
उसी की आग में से 
 
बार-बार, बार-बार 
 
मुझे अपने फूल हैं चुनना। 
 
चिता मेरी है: दुख मेरा नहीं। 
 
तुम्हारा भी बने क्यों, जिसे मैंने किया है प्यार? 
 
तुम कभी रोना नहीं, मत 
 
कभी सिर धुनना। 
 
टूटता है जो उसी भी, हाँ, कहो संसार 
 
पर जो टूट को भी टेक दे, ले धार, सहार, 
 
उस अनन्त, उदार को 
 
कैसे सकोगे भूल— 
 
उसे, जिस को वह चिता की आग 
 
है, होगी, हुताशन— 
 
जिसे कुछ भी, कभी, कुछ से नहीं सकता मार— 
 
वही लो, वही रखो साज-सँवार— 
 
वह कभी बुझने न वाला 
 
प्यार का अंगार!
 
  
 
<span style="font-size:14px">फाल्गुन शुक्ला सप्तमी, सं० २०२२]</span>
 
<span style="font-size:14px">फाल्गुन शुक्ला सप्तमी, सं० २०२२]</span>
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22:01, 3 नवम्बर 2009 का अवतरण

एक दिन रूक जाएगी जो लय
उसे अब और क्या सुनना?
व्यतिक्रम ही नियम हो तो
उसी की आग में से
बार-बार, बार-बार
मुझे अपने फूल हैं चुनना।
चिता मेरी है: दुख मेरा नहीं।
तुम्हारा भी बने क्यों, जिसे मैंने किया है प्यार?
तुम कभी रोना नहीं, मत
कभी सिर धुनना।
टूटता है जो उसी भी, हाँ, कहो संसार
पर जो टूट को भी टेक दे, ले धार, सहार,
उस अनन्त, उदार को
कैसे सकोगे भूल—
उसे, जिस को वह चिता की आग
है, होगी, हुताशन—
जिसे कुछ भी, कभी, कुछ से नहीं सकता मार—
वही लो, वही रखो साज-सँवार—
वह कभी बुझने न वाला
प्यार का अंगार!


फाल्गुन शुक्ला सप्तमी, सं० २०२२]