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− | मैं एक दरवाज़ा थी | + | मैं एक दरवाज़ा थी |
− | मुझे जितना पीटा गया | + | मुझे जितना पीटा गया |
− | मैं उतना ही खुलती गई। | + | मैं उतना ही खुलती गई। |
− | अंदर आए आने वाले तो देखा– | + | अंदर आए आने वाले तो देखा– |
− | चल रहा है एक वृहत्चक्र– | + | चल रहा है एक वृहत्चक्र– |
− | चक्की रुकती है तो चरखा चलता है | + | चक्की रुकती है तो चरखा चलता है |
− | चरखा रुकता है तो चलती है कैंची-सुई | + | चरखा रुकता है तो चलती है कैंची-सुई |
− | गरज यह कि चलता ही रहता है | + | गरज यह कि चलता ही रहता है |
− | अनवरत कुछ-कुछ ! | + | अनवरत कुछ-कुछ ! |
− | ... और अन्त में सब पर चल जाती है झाड़ू | + | ... और अन्त में सब पर चल जाती है झाड़ू |
− | तारे बुहारती हुई | + | तारे बुहारती हुई |
− | बुहारती हुई पहाड़, वृक्ष, पत्थर– | + | बुहारती हुई पहाड़, वृक्ष, पत्थर– |
− | सृष्टि के सब टूटे-बिखरे कतरे जो | + | सृष्टि के सब टूटे-बिखरे कतरे जो |
− | एक टोकरी में जमा करती जाती है | + | एक टोकरी में जमा करती जाती है |
− | मन की दुछत्ती पर।< | + | मन की दुछत्ती पर। |
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20:41, 4 नवम्बर 2009 का अवतरण
मैं एक दरवाज़ा थी
मुझे जितना पीटा गया
मैं उतना ही खुलती गई।
अंदर आए आने वाले तो देखा–
चल रहा है एक वृहत्चक्र–
चक्की रुकती है तो चरखा चलता है
चरखा रुकता है तो चलती है कैंची-सुई
गरज यह कि चलता ही रहता है
अनवरत कुछ-कुछ !
... और अन्त में सब पर चल जाती है झाड़ू
तारे बुहारती हुई
बुहारती हुई पहाड़, वृक्ष, पत्थर–
सृष्टि के सब टूटे-बिखरे कतरे जो
एक टोकरी में जमा करती जाती है
मन की दुछत्ती पर।