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"दरवाज़ा / अनामिका" के अवतरणों में अंतर

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मैं उतना ही खुलती गई।<br>
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बुहारती हुई पहाड़, वृक्ष, पत्थर–<br>
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मन की दुछत्ती पर।<br><br>
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मन की दुछत्ती पर।
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20:41, 4 नवम्बर 2009 का अवतरण

मैं एक दरवाज़ा थी
मुझे जितना पीटा गया
मैं उतना ही खुलती गई।
अंदर आए आने वाले तो देखा–
चल रहा है एक वृहत्चक्र–
चक्की रुकती है तो चरखा चलता है
चरखा रुकता है तो चलती है कैंची-सुई
गरज यह कि चलता ही रहता है
अनवरत कुछ-कुछ !
... और अन्त में सब पर चल जाती है झाड़ू
तारे बुहारती हुई
बुहारती हुई पहाड़, वृक्ष, पत्थर–
सृष्टि के सब टूटे-बिखरे कतरे जो
एक टोकरी में जमा करती जाती है
मन की दुछत्ती पर।