|संग्रह=पहला उपदेश / अनिल कुमार सिंह
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
इस गोबर पाथती बुढ़िया को
हमारे बारे में कुछ नहीं मालूम !
इस गोबर पाथती बुढ़िया को<br>धीरे-धीरे उतरती है शाम हमारे बारे में कुछ नहीं मालूम !<br><br>उसकी जलाई उपलियों का धुआँ गाँव पर चँदोवे-सा तन जाता है।
धीरे-धीरे उतरती ठीक यहीं से शुरू होता है शाम<br>उसकी जलाई उपलियों का धुआँ<br>हमारा सुलगना, गाँव के अधिकांश चूल्हों पर चँदोवे-सा तन पानी पड़ जाता है।<br><br>है ठीक उसी समय
ठीक यहीं से शुरू होता है<br>हमसे अपरिचय के बावजूद हमारा सुलगना,<br>हमारे हर परिवर्तन को गाँव के अधिकांश चूल्हों पर<br>पानी पड़ जाता हमसे ज्यादा समझती है<br>ठीक उसी समय<br><br>बुढ़ियाँ
हमसे अपरिचय के बावजूद<br>गोबर पाथती बुढ़िया हमारे हर परिवर्तन को<br>एक आईना है जिसमें हमारा हमसे ज्यादा समझती हर अक्स बहुत साफ नज़र आता है बुढ़ियाँ<br><br>
गोबर पाथती बुढ़िया<br>तुम कहीं भी हो, किसी भी वक्त एक आईना है जिसमें हमारा<br>बस में, ट्रेन में हर अक्स बहुत साफ नज़र आता है<br><br>या अन्तरिक्ष शटल कोलम्बिया में तुम कहीं भी किसी भी ठौर देख सकते हो उसमें अपनी शक्ल
तुम कहीं भी हो, किसी भी वक्त<br>वह एक सुविधा है बस में, ट्रेन में<br>जो हमें उपलब्ध है या अन्तरिक्ष शटल कोलम्बिया में<br>जीवित आदमी की गर्माहट है वह तुम कहीं भी<br>हमारे वर्तमान की किसी भी ठौर<br>देख सकते हो उसमें अपनी शक्ल<br>सबसे मूल्यवान धरोहर
वह एक सुविधा है<br>जो हमें उपलब्ध है<br>जीवित आदमी की गर्माहट है वह<br>हमारे वर्तमान की<br>सबसे मूल्यवान धरोहर<br><br> उससे मिलो<br>वह जार्ज आर्वेल नहीं है<br>वह बताएगी<br>इक्कीसवीं सदी में जीने का<br>
सबसे सुघड़ सलीका।
</poem>