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वापस / अरुण कमल

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|रचनाकार=अरुण कमल
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{{KKCatKavita}}<poem>घूमते रहोगे भीड़ भरे बाज़ार में<br>एक गली से दूसरी गली एक घर से दूसरे घर<br>बेवक़्त दरवाजा खटखटाते कुछ देर रुक फिर बाहर भागते<br>घूमते रहोगे बस यूँ ही<br>लगेगा भूल चुके हो लगेगा अंधेरे में सब दब चुका है<br>पर अचानक करवट बदलते कुछ चुभेगा<br>और फिर वो हवा काँख में दबाए तुम्हें बाहर ले जाएगी<br>दूर तारे हैं ऐसा प्रकाश अंधकार से भरा हुआ<br>कहीं कोई उल्का पिंड गिर रहा है<br>ऐसी कौंध कि देख न सको कुछ भी<br>दूर तक चलते चले जाओगे पेड़ों के नीचे लंबी सड़क पर<br>पेड़ तुम पर झुकते आते<br>चाँद दिखेगा और खो जाएगा<br>और तुम लौटोगे वापस थक कर| <br><br/poem>
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