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12:51, 5 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण
मैं वहाँ भी गया जहाँ नदी सागर से मिलती थी
वहाँ भी जहाँ मैदान पहाड़ों में ढलते थे
मैं वहाँ भी गया जहाँ झीलों का जल मीठा था
और वहाँ भी जहाँ पहाड़ थे नमक के
मैं इस तरह घूमता रहा जैसे मेरा कुछ खो गया हो
जैसे मेरी एक चप्पल, आधी देह, मैंने सब-कुछ उलट कर देखा
वह स्त्री जो काली मिट्टी से बनी थी
वो स्त्री जो चावल का दाना थी साफ़-सुडौल
वह स्त्री जो पीतल की बनी थी
जो उड़हुल के फूल का कत्थई अंधेरा थी
हर बार लगा जैसे मेरी साँस पूरी नहीं हो रही
लगा जैसे मैं रास्ता भूल गया
और घूमते-घूमते एक बार फिर वहीं आ गया जहाँ से चला था
दरवाज़े का एक पल्ला खुला था
और आंगन में एक पौधा सूखते-सूखते हरा था
एक बेल पक-पक कर कच्चा होता बार-बार।